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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
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का शस्त्र या युद्ध में शत्रुओं को फँसाने के लिए प्रयुक्त होनेवाला एक प्रकार का 'जादू का जाल' कहा है ।
विद्याधर, इस जादूई जाल के प्रयोग में बड़े निपुण थे । सोलहवें बालचन्द्रालम्भ (पृ. २५१) में कथा है कि वसुदेव को अशोकवृक्ष के नीचे श्यामल शिला पर बैठी स्वर्णनिर्मित देवी जैसी कन्या बालचन्द्रा नागपाश से बँधी दिखाई पड़ी थी। विद्या की साधना से भ्रष्ट हो जाने के कारण ही वह नागपाश में बँध गई थी। विद्याधर नागराज धरण के शापदोष से ही वह नागपाश में आबद्ध हुई थी, जो संजयन्त मुनि के समय से ही, पाँच नदियों की संगमभूमि पर स्थित वरुणोदिका नदी के तट पर विद्याधरों की विद्यासाधना की भूमि के रूप में प्रतिष्ठित सीमानर पर्वत पर विद्या की साधना कर रही थी ।
नागपाश की चर्चा इक्कीसवें केतुमतीलम्भ (पृ. ३३०) में भी आई है। कथा है कि एक दिन सुदर्शना नाम की गणिका वसन्तकाल में, फूल की डलिया हाथ में लेकर वज्रायुध के पास पहुँची और उन फूलों को दिखलाती हुई उससे बोली : “देव ! देवी लक्ष्मीमती निवेदन करती है कि स्वामी ! 'सुरनिपात' उद्यान में वसन्तश्री का अनुभव करने चलें ।” कुमार वज्रायुध सात सौ रानियों के साथ निकला और उद्यानस्थित 'प्रियदर्शना' नाम की बावली में सबके साथ जलक्रीड़ा करने लगा। कुमार को जलक्रीड़ा के क्रम में रतिप्रसक्त जानकर वध के वैरी विद्युद्दंष्ट्र ने उस वज्रायुध कुमार के ऊपर पहाड़ गिरा दिया और सुदृढ़ नागपाश से उसे बांध दिया। उस उपसर्ग को देखकर भी कुमार वज्रायुध निर्भीक बना रहा और पहाड़ को भेदकर तथा सुदृढ़ नागपाश को तोड़कर बाहर निकल आया ।
विद्याधर- कुमारियाँ भी आवश्यकतावश अस्त्र धारण करती थीं। एक दिन वज्रायुध विपुल रत्नों से मण्डित सभा में बत्तीस हजार राजाओं से घिरा हुआ तथा शीर्षरक्षक (अंगरक्षक), पुरोहित, मन्त्री और महामन्त्री के बीच अपने सिंहासन पर बैठा था। उसी समय थरथर कांपता हुआ और भय से उत्पन्न घिघियाहट के साथ 'शरण दें, शरण दें, कहता हुआ एक विद्याधर राजा वज्रायुध के पास पहुँचा । उसी क्षण उसका पीछा करती हुई तलवार और ढाल हाथ में लिये, ललित और लचीली देहयष्टिवाली कोई विद्याधरकुमारी आई और उसके पीछे गदा हाथ में लिये एक विद्याधर पहुँचा (तत्रैव) |
इक्कीसवें केतुमतीलम्भ (पृ. ३१३) में ही, त्रिपृष्ठ और अश्वग्रीव की युद्धकथा के प्रसंग में, संघदासगणी ने 'सहस्रारचक्र' नामक एक अद्भुत अस्त्र का उल्लेख किया है । जब अश्वग्रीव ने त्रिपृष्ठ के युद्ध का आमन्त्रण स्वीकार कर लिया, तब दोनों की सेनाएँ प्रेक्षक के रूप में खड़ी हो गईं। जोर-जोर से चिल्लाते हुए व्यन्तर देवजाति के ऋषिवादित और भूतवादित देवों से आकाश आच्छादित हो गया । त्रिपृष्ठ और अश्वग्रीव जूझने लगे । व्यन्तरदेव त्रिपृष्ठ (केशव के प्रतिरूप) के रथ पर पुष्पवर्षा करने लगे । विद्याधर- नरेश अश्वग्रीव त्रिपृष्ठ के वध के लिए जिन अस्त्रों को छोड़ता, उन्हें वह, सूर्य जिस प्रकार अन्धकार को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार, अपने विविध अस्त्रों से विफल कर देता । तब अश्वग्रीव ने त्रिपृष्ठ के वध के लिए 'सहस्रारचक्र' का प्रयोग किया। लेकिन, वह चक्र त्रिपृष्ठ की प्रदक्षिणा करके उसके पैरों के पास आकर रुक गया और उसके हाथ