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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
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दासगणी द्वारा उल्लिखित अस्त्र-शस्त्र और यथाचर्चित युद्धविद्या के विहंगावलोकन से उनके आयुवेद-विषयक शास्त्रीय परिज्ञान पर चकित चमत्कृत रह जाना पड़ता है । संघदासगणी के युग में चोर सेंधमारी भी करते थे और इस कार्य के लिए वे सुविधापूर्वक सेंध लगाने लायक, भवन के भूमिभाग को पहचान कर वहाँ 'आरामुख नहरनी' से सेंध लगाते थे : "तस्स य आरामुहेण नहरणेणं संधि छिंदिरं पयत्तो सुहच्छेदभूमिभागे निविट्ठो"; (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४०) । सेंध का द्वार इतना बड़ा होता था कि चोर उसमें प्रवेश करके धन से भरी बड़ी-बड़ी पेटिकाएँ बाहर निकाल ले जाते थे ।
विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों के साथ ही लाठी चलाने की प्रक्रिया में कुशलता भी उस युग में अनिवार्य थी । धम्मिल्ल जब कमलसेना और विमलसेना को रथ पर ले जा रहा था, तभी रास्ते में उसे कुछ चोर मिले, जो तलवार, ढाल, भाला आदि शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित थे । उनके हाथ में खङ्ग और फलक (तलवार और ढाल) के अलावा शक्ति और तोमर नाम के दो प्रकार के भाले भी थे । इसका पूरा रुचिकर प्रसंग इस प्रकार चित्रित है : शस्त्रास्त्रधारी चोर अनेक देशों की भाषाएँ बोल रहे थे ('णाणाविहदेसभासाविसारए; तत्रैव : पृ. ५५) । वे बड़े वेग से धम्मिल्ल के सामने आये। चोरों को देखकर कमलसेना और विमलसेना काँपने लगीं । धम्मिल्ल ने उन्हें आश्वस्त किया और वह रास्ते पर मोर्चेबन्दी करके खड़ा हो गया। ढाल और भाला लिये चोर जब निकट आ गये, तब धम्मिल्ल ने एक चोर को एक ही लाठी के प्रहार से गिरा दिया और उसके भाले और ढाल छीन लिये। धम्मिल्ल को 'गृहीतायुध' देखकर युद्धकुशल चोरों ने उसपर सहसा आक्रमण कर दिया । धम्मिल्ल ढाल के प्रयोग की कला में निपुण रहने के कारण चोरों के बीच में घुसकर मार करने लगा। चोर चारों ओर बिखर गये और ढाल, शक्ति और तोमर जैसे विशिष्ट आयुधों को छोड़कर भाग खड़े हुए। तब, उनका सेनापति गरजता हुआ आया, जिसे जितेन्द्रिय धम्मिल्ल ने मायाबल से यन्त्र की भाँति घुमाया और दाँव देखकर एक ही भाले के प्रहार से मा गिराया। सेनापति को मरते देख शेष सभी चोर भाग गये। कहना न होगा कि संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' के दो प्रसिद्ध वीर पात्र धम्मिल्ल और अगडदत्त को धनुर्वेद या आयुधवेद-विद्या के पारगामी योद्धा के रूप में उपन्यस्त किया है ।
धम्मिल्ल सारथी की विद्या में कुशल तो था ही, खड्ग के संचालन में भी बड़ा निपुण था । एक दिन धम्मिल्ल राजा कपिल के तेजस्वी घोड़े को फेरने के लिए तैयार हुआ । अश्वपरिचारकों ने घोड़े को लगाम, जीन आदि से सज्जित किया । धम्मिल्ल फुरती से मानों पक्षी की तरह उड़कर अनायास ही घोड़े पर चढ़ गया। उसने, रथचर्या में कुशल होने के कारण, घोड़े के स्वभाव को पहचान लिया था, इसलिए उसे विभिन्न रीति से फेरकर अपना वशवर्त्ती बना लिया । घोड़ा ऊबड़-खाबड़ भूमि को पार करके कनकबालुका नदी के निकट जाकर अपने मन से खड़ा हो गया । धम्मिल्ल घोड़े से उतरा तथा उसने उसे लगाम, जीन आदि से मुक्त करके विदा कर दिया और स्वयं दक्षिण की ओर चल पड़ा। कनकबालुका नदी के प्रदेश को पार करने पर उसे पेड़ से लटकती, कमल के कोष में आवृत, मणिखचित मूठवाली, चित्र-विचित्र हार जैसी तलवार दिखाई पड़ी। चारों ओर देखकर उसने पेड़ से तलवार उतार ली और उसे म्यान से बाहर निकाला। तीसी के फूल की भाँति नीलाभ, तिल के तेल की धारा जैसी चिकनी वह तलवार अद्भुत थी । अपनी चमक से वह घूमती-सी प्रतीत होती थी, अपने हलकेपन (जो किसी भी अस्त्र का विशिष्ट