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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा 'रामायण' और 'महाभारत' में कई स्थलों पर शब्दवेधी बाण का उल्लेख हुआ है। राजा दशरथ शब्दवेधी बाण चलाने में कुशल थे और अर्जुन को भी शब्दवेधी बाण का विशेषज्ञ माना जाता था। यहाँतक कि 'शब्दवेधी' शब्द अर्जुन और दशरथ का पर्यायवाची बन गया है। शब्दवेधी बाण का अभ्यास बड़ा कठिन होता था।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि भारत में आदिकाल से ही धनुर्वेद का प्रचलन, प्रियता और प्रख्याति रही है । संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में, विशेषतः उसके 'धम्मिल्लहिण्डी' प्रकरण में धनुर्वेद या आयुधवेद का जो वर्णन किया है, उससे उनके प्राच्यभारतीय धनुर्वेद-विद्या के सूक्ष्मातिसूक्ष्म तथ्यों के विशद और गम्भीर ज्ञान की सूचना मिलती है। यहाँ संघदासगणी की आयुधवेद-विद्या की विशेषता का विवेचन भारतीय प्राचीन धनुर्विद्या के परिप्रेक्ष्य में प्रासंगिक होगा। कथाकार ने भारतीय प्राचीन धनुर्वेद के आधार पर अपने वर्ण्य को विस्तार तो दिया ही है, कहीं-कहीं उनकी एतद्विषयक उदात्त कल्पना की रमणीयता और चमत्कारिता ततोऽधिक हृदयावर्जक हो उठी है।
संघदासगणी ने धनुर्वेद की शिक्षा प्रारम्भ करने का शास्त्रीय विधि का उल्लेख किया है। दृढप्रहारी ने अगडदत्त को धनुर्वेद का प्रशिक्षण देने के क्रम में पहले बाण को खींचने की प्रक्रिया बताई । फिर, पाँच प्रकार की धनुर्मुष्टि (धनुष को पकड़ने की कला : गुणमुष्टि के पाँच भेद) का उपदेश किया। इसके बाद ही, श्रेष्ठ धनुर्धर को जीतने की शक्ति अगडदत्त को प्राप्त हो गई। मुष्टिबन्ध की कुशलता भी उसे उपलब्ध हो गई। फिर, शीघ्र लक्ष्यवेध में और लक्ष्यवेध के समय खड़े होने की विधियों (समपाद, वैशाख, मण्डल, आलीढ आदि) में भी उसने दक्षता आयत्त कर ली, साथ ही वह दृढ प्रहार की क्षमता से भी सम्पन्न हो गया। पुन: पाटितक (विदारित करनेवाला) और यन्त्रमुक्त, इन दो प्रकार के धनुरायुधों की भी शिक्षा पूरी हुई । तदनन्तर, और भी अन्यान्य, शिक्षकोपदिष्ट शस्त्रविधियों, जैसे तरुपतन (बाण से पेड़ गिराना), छेद्य, भेद्य, यन्त्रास्त्र और स्फारकास्त्र (टंकारयुक्त अस्त्र) के संचालन, (रथचर्या-विधि) आदि का सांगोपांग प्रशिक्षण पूरा हुआ (अगडदत्तचरित : पृ. ३६)।
अगडदत्त की विद्या जब सिद्ध हो गई, तब वह उज्जयिनी लौट आया और गुरु की आज्ञा पाकर अपनी शिक्षा के प्रदर्शन के लिए जितशत्रु के राजदरबार में उपस्थित हुआ। वहाँ उसने, खड्ग और ढाल का संचालन, हाथी का खेलाना, घूमते हुए चक्र का वेध (अर्थात्, चलवेध), गतिशील लक्ष्य का गतिशील होकर वेध (अर्थात. द्रयचलवेध) प्रचण्ड हवा में काँपते हए लक्ष्य का वेध (अर्थात् चलाचलवेध) आदि जितनी धनुर्विद्याएँ उसने सीखी थीं, उन सबको यथावत् प्रदर्शित किया। सभी प्रेक्षक विस्मित और हतबुद्धि होकर अगडदत्त के धनुः कौशल को देखते और उसकी प्रशंसा करते रहे। ___ यहाँ संघदासगणी ने वैशम्पायन तथा वृद्धशांर्गधर-प्रोक्त लक्ष्यवेध-विधियों की ओर संकेत तो किया ही है, साथ ही अपने धनुर्वेद-विषयक गहन अध्ययन के आधार पर और भी अनेक शस्त्रास्त्रों और उनकी संचालन-विधियों तथा हाथी के खेलाने की विधि की ओर भी संकेत किया है। इससे, यह स्पष्ट है कि पुराकाल के सारथी को व्यापक धनुर्वेद-ज्ञान अर्जित करना अनिवार्य होता था और वह केवल सारथी ही नहीं होता था, अपितु सम्पूर्ण युद्धविद्या में पारंगत अपराजेय योद्धा की भूमिका का भी निर्वाह करता था। तभी तो अगडदत्त राजा जितशत्रु के राज्य में, अपने सारथी पिता की गद्दी हासिल करने में सफल हुआ।