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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ २२५ शृंगनिर्मित था, इसलिए उनके धनुष को शांर्गधनुष कहा जाता है और वे स्वयं शांर्गपाणि थे । कहा जाता है कि महेश्वर और ब्रह्मा द्वारा प्रचारित धनुर्वेद आजकल लुप्त हो गया है । मधुसूदन सरस्वती के 'प्रस्थानभेद' के अनुसार, सर्वप्रथम विश्वामित्र ने धनुर्वेद का प्रवर्तन किया । 'महाभारत' के धनुर्धरों में अर्जुन तथा रामायण के धनुर्धरों में राम और लक्ष्मण के नाम ही अधिक प्रासंगिक हैं । अर्जुन तो बायें हाथ से भी दायें हाथ की भाँति पूरी क्षमता के साथ अपने प्रसिद्ध धनुष गाण्डीव को खींचते थे, इसीलिए उन्हें 'सव्यसाची' कहा गया । ' 'महाभारत' में जिस प्रकार द्रोणाचार्य महान् धनुर्वेदाचार्य के रूप में प्रतिष्ठित हैं, उसी प्रकार रामायण में राम-लक्ष्मण को धनुर्वेद की शिक्षा देनेवाले वरेण्य आचार्य के रूप में विश्वामित्र की प्रतिष्ठा है । प्रविदित है कि विश्वामित्र ने राम और लक्ष्मण को युद्धविद्याओं के साथ ही अनेक युद्धास्त्र भी दिये थे । 1 भारतीय धनुर्वेद-ग्रन्थों में धनुर्वेद या आयुधवेद के चार पाद कहे गये हैं: दीक्षापाद, संग्रहपाद, सिद्धिपाद और प्रयोगपाद । दीक्षापाद में धनुष एवं विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों के लक्षण प्रस्तुत किये गये हैं; संग्रहपाद में आचार्यों के लक्षण और सर्वविध अस्त्र-शस्त्र आदि के संग्रह का निरूपण है; सिद्धिपाद में गुरु और विभिन्न सम्प्रदायों के विशिष्ट सिद्धास्त्रों की विवृति दी गई है तथा प्रयोगपाद में देवार्चना, अस्त्रसिद्धि तथा अस्त्रशस्त्रों की प्रयोगविधि निरूपित की गई है । यों तो, ब्राह्म, वैष्णव, पाशुपत, प्राजापत्य, आग्नेय आदि भेदों से आयुध अनेक प्रकार के हैं, और उस समय के क्षत्रियकुमार समन्त्र और साधिदैवत आयुधों से सम्पन्न होते थे, अर्थात् उन्हें आयुधों के मन्त्र तथा उनके देवता सिद्ध रहते थे, साथ ही पदाति, रथी, गजारोही और अश्वारोही, यानी चतुरंगिणी सेना उनकी अनुवर्त्तिनी रहती थी। अस्त्रों के प्रशिक्षण या प्रयोग का प्रारम्भ मंगलाचारपूर्वक ही होता था । प्राचीन धनुर्वेदज्ञों ने आयुधों को प्रमुखतया चार वर्गों में रखा है: मुक्त, अमुक्त, मुक्तामुक्त और यन्त्रमुक्त। मुक्त, यानी फेंककर प्रयोग किये जानेवाले आयुधों को 'अस्त्र' तथा अमुक्त, यानी वा फेंककर चलाये जानेवाले आयुधों को 'शस्त्र' कहा गया है। चक्र मुक्तास्त्र है, तो खङ्ग अमुक्त शस्त्र । भाले और बरछे को 'मुक्तामुक्त' आयुध माना गया है । क्योंकि, इन्हें कभी फेंककर और कभी विना फेंके ही प्रयोग में लाया जाता है । उस युग में धनुष से मुक्त बाण ही यन्त्रमुक्त अस्त्र का प्रतिनिधित्व करता था। नालिकास्त्र ( बन्दूक आदि) का आविष्कार तो उस युग में नहीं हुआ था, किन्तु आग्नेयास्त्र के रूप में अग्निबाण के प्रयोग का उल्लेख अवश्य मिलता है । संघदासगणी ने भी यन्त्रमुक्त और पाटि क, इन दो प्रकार के धनुरायुधों का उल्लेख किया है ( धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ३६) । वैशम्पायन के धनुर्वेद से ज्ञात होता है कि सर्वप्रथम खड्ग का आविष्कार और प्रचार हुआ । पीछे चलकर वेणपुत्र राजा पृथु के समय में धनुष का प्रचलन प्रारम्भ हुआ । वृद्धशांर्गधर ने धनुष १. महाभारत में सव्यसाची की व्याख्या इस प्रकार है : उभौ मे दक्षिणी पाणी गाण्डीवस्य विकर्षणे । तेन देवमनुष्येषु सव्यसाचीति मां विदु : 11 (आप्टे के संस्कृत-हिन्दी-कोश से उद्धृत)
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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