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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा अन्त में, अपनी माँ के परामर्श के अनुसार, अगडदत्त अपने पिता के सहाध्यायी परम मित्र दृढ़प्रहारी के निकट धनुर्वेद और शस्त्रविद्या सीखने के लिए कौशाम्बी चला गया । दृढ़प्रहारी उत्तम सारथी होने के साथ ही धनुर्वेद और शस्त्रविद्या का पारगामी विद्वान् था। अगडदत्त ने कौशाम्बी पहुँचकर दृढ़प्रहारी को 'धनुर्वेद, शस्त्रविद्या और रथचर्या में कुशल आचार्य' कहकर सम्बोधित किया। दृढ़प्रहारी ने उसे पुत्रवत् स्नेह देते हुए कहा : “मैंने जितना शिक्षण प्राप्त किया है, उतना सब कुछ तुम्हें भी सिखाऊँगा।” इसके बाद शुभ तिथि, करण, नक्षत्र, दिन और मुहूर्त में, शकुनशास्त्रीय विधि पूरी करके दृढ़प्रहारी ने अगडदत्त को धनुर्वेद का प्रशिक्षण देना प्रारम्भ किया।
इस कथा-प्रसंग से स्पष्ट है कि धनुर्वेद के ज्ञान में सम्पूर्ण आयुधवेद का ज्ञान समाहृत है। साथ ही, इसमें समस्त युद्धविद्या की कलाओं का परिज्ञान भी निहित है। इसलिए, प्राचीन काल के राजा व्यावहारिक अभ्यासपूर्वक धनुर्वेद पढ़ते थे। उस युग में जो मनुष्य धनुर्विद्या में श्रेष्ठ होता था, वह राजसमाज में प्रसिद्ध और सम्माननीय वीर पुरुष के रूप में पूजा जाता था। 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' में बुधस्वामी ने लिखा है कि वाराणसी के राजा ब्रह्मदत्त का सभामण्डप श्रुति, स्मृति, पुराण आदि ग्रन्थसागर के पारगामी विद्वानों से विभूषित तो था ही, धनुर्वेद आदि के तत्त्वज्ञ और कलादक्ष लोगों से भी सुशोभित था।'
'रामायण', 'महाभारत' आदि प्राचीन संस्कृत-ग्रन्थों में धनुर्वेद का यथेष्ट विवरण प्राप्त होता है। 'हिन्दी-विश्वकोश' के सम्पादक प्राच्यविद्यामहार्णव नगेन्द्रनाथ वसु ने चर्चा की है कि मिस्रदेश के पिरामिडों में भी धनुर्धारी वीरों की अतिप्राचीन मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। ग्रीस और रोम के प्राचीन ग्रन्थों में भी धनुर्विद्या का समीचीन वर्णन मिलता है। किन्तु, इतना स्पष्ट है कि सुनियोजित प्रणाली के साथ धनुर्विद्या के शिक्षण की परम्परा का प्रवर्तन भारतवर्ष में ही हुआ। पारसी में जो धनुर्वेद का वर्णन पाया जाता है, वह संस्कृत-ग्रन्थों में प्राप्य तद्विषयक तथ्यों का अनुवाद-मात्र है।
भारतीय मान्यता के अनुसार, आर्य ऋषियों ने क्षत्रिय राजकुमारों को सिखाने के लिए धनुर्विद्या-विषयक जिन ग्रन्थों का प्रचार किया, वे ही धनुर्वेद के रूप में प्रसिद्ध हुए। मधुसूदन सरस्वती ने 'प्रस्थानभेद' ग्रन्थ में धनुर्वेद को यजुर्वेद का उपवेद कहा है। नगेन्द्रनाथ वसु ने पूर्वकाल में प्रचलित अनेक धनुर्वेदों की चर्चा की है। प्रसिद्ध धनुर्वेदों में वैशम्पायनोक्त धनुर्वेद की महीयसी प्रतिष्ठा थी। इसके अतिरिक्त 'शुक्रनीति', 'कामन्दकनीति', 'अग्निपुराण', 'वीरचिन्तामणि', 'लघुवीरचिन्तामणि', 'वृद्धशांर्गधर', 'युद्धजयार्णव', 'युद्धकल्पतरु', नीतिमयूख' प्रभृति ग्रन्थों में भी धनुर्वेद का विशद वर्णन किया गया है। जिस प्रकार ब्राह्मणों के निकट वेद, चिकित्सकों के निकट आयुर्वेद और संगीतज्ञों के बीच गन्धर्ववेद समादृत था, उसी प्रकार क्षत्रियों द्वारा धनुर्वेद को समादर दिया जाता था। धनुर्वेद में सैद्धान्तिक ज्ञान को जितना महत्त्व प्राप्त था, उतना ही या उससे भी अधिक समादर आभ्यासिक या व्यावहारिक क्रिया को उपलब्ध था। ... 'अग्निपुराण' में कहा गया है कि सर्वप्रथम ब्रह्मा और महेश्वर ने धनुर्वेद का प्रचार किया। महेश्वर स्वयं महान् धनुर्धर थे। उनके धनुष के दो नाम कोश-प्रसिद्ध हैं : पिनाक और अजगव । इसीलिए उन्हें 'त्रिशूलपाणि' के साथ ही 'पिनाकपाणि' भी कहा जाता है। विष्णु का धनुष
१. श्रुतिस्मृतिपुराणादिग्रन्थसागरपारगैः ।
धनुर्वेदादितत्त्वज्ञैः कलादक्षश्च सेवितम् ॥ (२७.२०)