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________________ वसदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ २२३ वस्तुएँ दिखाई पड़ती हैं। तब, अर्जुन ने उत्तर दिया : “मुझे चिड़िया की आँख को छोड़कर और कुछ भी नहीं दिखाई पड़ता।" 'शरवत्तन्मयो भवेत्' का यह उत्कृष्ट उदाहरण है। योगशास्त्र में भी चित्तवृत्ति को लक्ष्य पर केन्द्रित करने के क्रम में यथाभिमत ध्यान ('यथाभिमतध्यानाद्वा'; समाधिपाद : ३९) अनिवार्य माना गया है। संघदासगणी ने भी, वसुदेव तथा पूर्णाश उपाध्याय की उक्ति-प्रत्युक्ति द्वारा योगविद्या और आयुधविद्या की एकक्रियता की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा है : “करणसहितो पुण आया कयपयत्तो चक्खिदिय-सोइंदिय-घाणिदियपउत्तो लक्खदेसे चित्तं निवेसेऊण हियइच्छियमत्यकज्जं समाणेति (पद्मालम्भ : पृ. २०२)।” अर्थात्, इन्द्रियसहित आत्मा को चेष्टाशील रखकर, चक्षुरिन्द्रिय, श्रोत्रेन्द्रिय एवं घ्राणेन्द्रिय की एकतानता के साथ चित्त को लक्ष्य पर लगाया जाता है, तो मनोवांछित रूप से अस्त्र-प्रयोग सिद्ध होता है। यहाँ भी बहश्रुत कथाकार ने मोक्षसिद्धि के समानान्तर लक्ष्यसिद्धि के लिए उपनिषद् के 'शरवत्तन्मयो भवेत्' या योगशास्त्र की ध्यानतन्मयता की अनिवार्यता का सबल समर्थन किया है। धनुर्वेद की निरुक्ति से भी यह स्पष्ट होता है कि धनुर्विद्या समग्र अस्त्रविद्या का वाचक है। 'धनूंषि उपलक्षणेन धनुरादीनि अस्त्राणि विद्यन्ते ज्ञायन्तेऽनेनेति ।' 'धनुः' पूर्व 'विद्' धातु से करण अर्थ में 'घ' प्रत्यय का योग होने से 'धनुर्वेद' शब्द निष्पन्न हुआ है। यहाँ उपलक्षण से, धनुष से इतर अस्त्रों का भी बोध होता है। इस प्रकार, विशिष्ट अर्थ में सम्पूर्ण अस्त्रविद्या के बोधक शास्त्र को धनुर्विद्या कहते हैं और सामान्य अर्थ में धनुष चलाने के कौशल की जानकारी देनेवाले विशिष्ट ज्ञान को धनुर्वेद कहा जाता है। पं. देशबन्धु विद्यालंकार ने लिखा है कि प्राचीन काल में धनुर्विद्या शब्द इतना व्यापक था कि प्रत्येक वीरोचित कार्य धनुर्विद्या के अन्तर्गत समझा जाता था। धनुर्विद्या शब्द की इतनी अधिक व्यापकता ही इस बात का साक्ष्य है कि उस काल में धनुष-बाण का बहुत अधिक प्रचार था। जैसे लेह्य, चोष्य, चळ, पेय, भक्ष्य, भोज्य आदि सभी पदार्थ 'भोजन' शब्द से व्यवहत होते हैं; क्योंकि भोजन में इन्हीं की प्रधानता होती है, वैसे ही उस काल में धनुर्विद्या का इतना अधिक प्रचार था कि सभी वीरोचित शारीरिक कृत्य धनुर्विद्या के अन्तर्गत समझे जाते थे, जिनमें शस्त्रास्त्र-विद्या के साथ मल्लविद्या भी परिगणित थी। संघदासगणी ने भी इसी मान्यता के आधार पर बाणविद्या (धनुर्वेद) के प्रशिक्षण के क्रम में समस्त युद्धास्त्रों के सीखने का भी उल्लेख किया है । अवन्ती जनपद की उज्जयिनी नगरी के राजा जितशत्रु का सारथी अमोघरथ धनुर्वेद (इष्वस्त्र) के साथ ही उसके अंगभूत शस्त्रविद्या, रथयुद्धविद्या, बाहुयुद्ध (णिजुद्ध = कुश्ती, मल्लविद्या) तथा अश्वसंचालन-विद्या में भी निपुण था ( "ईसत्यसत्य-रहजुद्ध-निजुद्ध-तुरगपरिकम्मकुसलो अमोहरहो नाम नामेणं"; धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ३६)। संयोगवश, अमोघरथ अपने पुत्र अगडदत्त को बचपन में ही छोड़कर चल बसा। तब, राजा जितशत्रु ने अमोघरथ की जगह अमोघप्रहारी को सारथी के स्थान पर नियुक्त किया। इससे अगडदत्त की माँ निरन्तर शोकाग्नि में जलती-झुलसती रहती थी। एक दिन उसने अपने बेटे अगडदत्त से बताया कि यदि तुम्हारे पिता जीवित होते, तो तुम भी धनुर्वेद और शस्त्रविद्या में कुशल होते और, अमोघप्रहारी की जगह तुम्हारी ही नियुक्ति होती। १. द्र. 'धनुर्विद्या',प्र. गुरुकुल आर्योला, बरेली, पृ. १२
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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