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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
२१७ उल्लिखित 'योगमद्य" या 'पुष्करमधु' 'गर' संज्ञक विष की कोटि में परिगणनीय है । धनश्री डिण्डी को बेहोश करने के लिए 'योगमद्य' लेकर अशोकवनिका में विनीतक के साथ आई थी. (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ५२) । फिर, गणिका वसन्ततिलका की माँ ने चारुदत्त को 'योगपान' पिलाकर अचेत कर दिया था और उसे भूतघर में डलवा दिया था (तत्रैव) । इसी प्रकार, चारुदत्त को, उसके मित्रों ने छलपूर्वक, जिस 'पुष्करमधु' को देवोपभोग्य और अमृतोपम कहकर पिलाया था, जिससे उसे चक्कर आने लगा था, वह भी एक विशिष्ट प्रकार से तैयार किया गया, मधु का भ्रम उत्पन्न करनेवाला, मद्य ही था (गन्धर्वदत्तालम्भ), यद्यपि वह घातक नहीं था।
इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्य, आयुर्वे-ग्रन्थों के विष-प्रकरण में यथाप्रस्तुत 'गर'-प्रयोग का प्रसंग भी आयुर्वेद-विद्या के विवरण के सन्दर्भ में अपना उल्लेखनीय मूल्य रखता है।
रस-प्रकरण :
आयुर्वेद के आठ अंगों में रसायनतन्त्र का भी महनीय स्थान है। क्षिप्र आरोग्यकारी होने के कारण चिकित्सा-क्षेत्र में रसचिकित्सा सर्वश्रेष्ठ मानी गई है। इसीलिए, कहा गया है कि 'क्षिप्रमारोग्यदायित्वा- दौषधेभ्योऽधिको रसः ।' रसचिकित्सा के आविर्भावक साक्षात् शिवजी माने जाते हैं। प्राचीन रसचिकित्सकों में प्रसिद्ध बौद्धभिक्षु नागार्जुन का नाम मूर्धन्य है। उन्होंने लोहे से सोना बनाने की विधि का आविष्कार कर भारतीय रसायन-तन्त्र को उल्लेखनीय पार्यन्तिकता प्रदान की है। लोहे से सोना बनाने की अद्भुत रहस्यमयी घटना प्राय: सभी प्राचीनतम भारतीय कथाओं में आवृत्त होती रही है। इसीलिए, इस रोचक-रोमांचक और रहस्य-विस्मयमयी पारम्परिक घटना को अपनी महत्कथा में समाविष्ट करने की गुंजाइश संघदासगणी ने भी निकाल ली है। दुर्गम सुवर्णद्वीप में जाकर सोने की प्राप्ति या लोहे से सोना बनाने के रस की उपलब्धि प्राचीन कथानायकों के पुरुषार्थ या जीवनोद्देश्य की चरम परिणति या परा काष्ठा मानी जाती थी।
संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' के गन्धर्वदत्तालम्भ में एतद्विषयक रोचक कथा इस प्रकार उपन्यस्त की है : जब औत्पातिक आँधी से चारुदत्त की नाव नष्ट हो गई, तब बहुत देर के बाद नाव का एक तख्ता उसके हाथ लग गया। उसी को पकड़कर लहर के सहारे बहता हुआ वह सात रात के बाद उदुम्बरावती के तट पर आ लगा। और तब, वह समुद्र से बाहर आ गया। खारे पानी में देर तक रहने से उसका शरीर सफेद पड़ गया था। वह एक लताकुंज के नीचे बैठकर विश्राम करने लगा।
उसी समय एक त्रिदण्डी वहाँ आया। वह उसे सहारा देकर गाँव में ले गया। अपने मठ में उसने उसके लिए अभ्यंग की व्यवस्था की और पूछा : “इभ्यपुत्र ! कैसे इस आफत में पड़ गये?" उसने त्रिदण्डी से यात्रा पर निकलने और आफत में पड़ने की अपनी कहानी संक्षेप में बताई । तब वह त्रिदण्डी सहसा फूट पड़ा : “ओ अभागे ! मेरे मठ से निकल जा।" वह वहाँ से निकल पड़ा। थोड़ी ही दूर गया था कि त्रिदण्डी ने उससे लौटने का आग्रह करते हुए कहा :
१. कौटिल्य ने भी अपने अर्थशास्त्र में अनेक प्रकार के योगमयों की चर्चा की है, जिनमें मेदकयोग,प्रसनायोग,
आसवयोग, सम्भारयोग आदि के बनाने का विधिवत् नुस्खा भी उन्होंने प्रस्तुत किया है। विशेष विवरण के लिए 'अर्थशास्त्र के दूसरे अधिकरण का पच्चीसवाँ अध्याय द्रष्टव्य है।