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________________ २१६ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा तालपुट विष का उल्लेख कथाकार ने किया है। सर्प-चिकित्सा के सन्दर्भ में चरक और सुश्रुत ने बड़ी सूक्ष्मता से विचार किया है। संघदासगणी ने प्राय: दृष्टिविष सर्प, भुजपरिसर्प, कुक्कुट सर्प, काकोदर सर्प, अगन्धन सर्प आदि की चर्चा की है। सुश्रुत ने साँपों के चार वर्गों का उल्लेख किया है : दीकर, मण्डली, राजिमान् और निर्विष । सुश्रुत ने 'परिसर्प' संज्ञक सर्प की गणना दवींकर-वर्ग में की है; किन्तु कथाकार ने शेष सों के नाम किसी अन्य स्रोत से लिये हैं। माधवीलता के झूले पर क्रीड़ा करते समय श्यामदत्ता को काकोदर सर्प ने डंस लिया था, जिससे वह क्षणभर में ही विष के वेग से अचेत हो गई थी। बाद में विद्याधर के स्पर्श से वह विषमुक्त हुई (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४६-४७) । रनों के ढेर पर सर्प के रहने की कल्पना बड़ी पुरानी है। राजा सिंहसेन एक दिन भवितव्यता से प्रेरित होकर भाण्डार में घुसा और उसने ज्योंही रत्नों पर दृष्टि डाली, त्यों ही रनों पर बैठे अगन्धन सर्प ने उसे डंस लिया। गारुडी ने विद्याबल से अगन्धन सर्प को राजा के शरीर से विष चूसने के लिए प्रेरित किया, किन्तु सर्प बड़ा अभिमानी था, वह विष चूसने को तैयार नहीं हुआ, फलत: विष से अभिभूत राजा मर गया (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५४) । सर्प-चिकित्सा के क्रम में चरक और सुश्रुत ने मन्त्र और आचूषण की विधि का उल्लेख किया है, किन्तु जिस साँप ने डंसा हो, उसी साँप को मन्त्रबल से बुलाकर, उसे अपने विष को चूसकर वापस लेने की विद्या की चर्चा उन्होंने नहीं की है। लेकिन, सुश्रुत ने इस बात की चर्चा अवश्य की है कि स्वयं सर्पदष्ट व्यक्ति ही उसी साँप को काटे ('स दष्टव्योऽथवा सर्पो') । ___संघदासगणी ने शरवन को दृष्टिविष सर्प का आवासस्थान बताया है एवं भुजपरिसर्प को आकाश में उड़नेवाली, सर्पजाति का निर्दिष्ट किया है। कुक्कुट सर्प ने रानी सुतारा को ज्योतिर्वन में डंस लिया था। मन्त्रौषधि से चिकित्सा करने पर भी वह बच नहीं पाई, तत्क्षण मर गई। आयुर्वेद के अनुसार, सर्प दो प्रकार के होते हैं: दिव्य और भौम । दिव्य सों की दृष्टि और नि:श्वास में विष होता है, किन्तु भौम सों की दंष्ट्रा में। कहना न होगा कि संघदासगणी ने दोनों प्रकार के सों की चर्चा अपनी महत्कथा में की है। _ 'वसुदेवहिण्डी' के केतुमतीलम्भ में प्राप्य स्थावर विष का एक प्रसंग उल्लेख्य है। राजा श्रीसेन के दोनों पुत्र-इन्दुसेन और बिन्दुसेन अनन्तमति नाम की गणिका के कारण जब देवरमण उद्यान में आपस में लड़ने लगे, तब उन्हें रोकने से असमर्थ होकर राजा ने तालपुट विष से भावित कमलपुष्प सूंघकर मृत्यु का वरण कर लिया। चरक, सुश्रुत और वाग्भट तीनों प्राचीन आयुर्वेदाचार्यों ने स्थावर विष में 'तालपुट' की गणना नहीं की है। इसलिए, संघदासगणी द्वारा उल्लिखित यह स्थावर विष भी भिन्नस्रोतस्क प्रतीत होता है, जो शोधकर्ताओं के लिए प्रश्नचिह्न बना हुआ है। प्राचीन आयुर्वेदज्ञों ने, नाना प्रकार की ओषधियों से निर्मित कृत्रिम विष को 'गर' संज्ञा से अभिहित किया है। यह प्राय: देर से या जल्दी भी असर करनेवाला होता है। संघदासगणी द्वारा १. कल्पस्थान, ५.६ २. कृत्रिमं गरसंज्ञं तु क्रियते विविधोषधैः । हन्ति योगवशेनाशु चिराच्चिरतराच्च तत् ॥- अष्टांगहृदय, उत्तरस्थान, ३५.६
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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