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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
२१५ आयुर्वेदशास्त्र में कुष्ठ, महारोगों में परिगणित है। वातव्याधि, प्रमेह, कुष्ठ बवासीर, भगन्दर, पथरी, मूढगर्भ और उदररोग, ये आठ महारोग हैं। इसलिए, इनकी चिकित्सा कठिन मानी जाती है। चरक और वाग्भट ने कुष्ठ-चिकित्सा. विस्तार से लिखी है और परवत्ती आयुर्वेदविदों ने भी। किन्तु क्रिमिकुष्ठ की चर्चा एकमात्र सुश्रुत ने ही की है और इसकी चिकित्सा के क्रम में नीम, आक और सप्तपर्ण का क्वाथ पीने तथा कीड़ों से भरे घावों पर लगाने के लिए विभिन्न प्रकार के तैलों (जैसे : वज्रकतैल, महावज्रकतैल आदि) और लेपों का विधान किया है, किन्तु संघदासगणी ने जिस 'शतसहस्रपाकतैल' या 'क्रिमिकुष्ठहरतैल' तथा गोशीर्षचन्दन के लेप का उल्लेख किया है, या फिर कम्बलरत्न द्वारा कोढ़ से कीड़ों को निकालने की जो अद्भुत विधि दी है, वह आयुर्वेद के प्राचीन ग्रन्थों में भी नहीं मिलती । संघदासगणी द्वारा निर्दिष्ट क्रिमिकुष्ठ की चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद-जगत् के लिए, निस्सन्देह, शोध और गवेषणा का विषय है। .
इसी प्रकार, कौशाम्बी का राजा जितशत्रु पूर्वभव में अशुभ कर्म के उदय से कुष्ठी हो गया था। उसके पिता ने अनेक वैद्यों से दवा कराई, किन्तु कुष्ठ दूर नहीं हुआ। एक बार यवनदेश के राजा द्वारा भेजा गया दूत कौशाम्बी आया। उसने चिकित्सा-विधि में कुष्ठी राजा के पिता से बताया कि अपने इस पुत्र को घोड़े के बछड़े के लहू में डुबाकर रखिए। कुष्ठी राजा के पिता ने पुत्रस्नेहवश कुष्ठ के उपचार के लिए राजकुल के एक घोड़े का वध करवा दिया (धम्मिल्लहिण्डी)। यवनदेशकी यह कुष्ठ-चिकित्सा-विधि भी अपने-आपमें पर्याप्त विस्मयकारी और विचारणीय भी है।
विष-प्रकरण :
विष और उससे सम्बद्ध चिकित्सा की चर्चा द्वारा संघदासगणी ने आयुर्वेद के अष्टांग में अन्यतम, 'अगदतन्त्र' में भी अपने गम्भीर प्रवेश की सूचना दी है। आयुर्वेदशास्त्र में विष दो प्रकार के माने गये हैं: स्थावर और जंगम। सुश्रुत के अनुसार, स्थावर विष पचपन प्रकार के हैं और फिर इनके अवान्तर भेद भी अनेक हैं। पेड़-पौधों के मूल, पत्ते, फूल, फल, छाल, दूध, सार, गोंद और कन्द तथा हरताल आदि धातु ये दस, स्थावर विष के, अधिष्ठान हैं। स्थावर विष के, चरक के अनुसार, आठवें और सुश्रुत के अनुसार, सातवें वेग में मनुष्य की मृत्यु हो जाती है। जंगम विष के सोलह अधिष्ठान हैं : जैसे, किसी जीव की दृष्टि, श्वास, दाँत (जबड़ा), नख, मल, मूत्र, शुक्र, लार, आर्त्तव, मुख-सन्दंश (मुखौष्ठ), अपानवायु, चोंच, हड्डी, पित्त, शूक (किसी तिनके की नोक) और शव। महर्षि आत्रेय के उपदेशानुसार, उनके शिष्य अग्निवेश या चरक महर्षि ने जहरीले जन्तुओं की दंष्ट्रा से उत्पन्न विष को जंगम विष कहा है। स्थावर विष जंगम विष को और जंगम विष स्थावर विष को नष्ट कर देता है। इसीलिए, कहा जाता है : 'विषस्य विषमौषधम्।' समुद्र-मन्थन के समय, उत्पन्न होते ही इस विष ने लोगों के मन में विषाद उत्पन्न किया, इसीलिए इसे 'विष' कहा जाने लगा। जंगम विष के फैलने की प्रवृत्ति नीचे से ऊपर की ओर होती है और स्थावर विष की गति ऊपर से नीचे की ओर रहती है। .
संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में स्थावर और जंगम दोनों प्रकार के विषों की चर्चा कथाव्याज से की है। जंगम विष में सर्पविष का और स्थावर विष में कमल के फूल में मिश्रित