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________________ २१८ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा "बेटे ! मैंने तो तुम्हारी विनम्रता की परीक्षा के लिए तुम्हें डाँटा था। अनजान की तरह क्यों अपने को मौत के मुँह में डाल रहे हो? अगर धन कमाना चाहते हो, तो मेरी आज्ञा का पालन करो। मेरी सेवा-उपासना से तुम्हें अनायास धन मिलेगा।" उसके बाद उस त्रिदण्डी के नौकरों ने उस (चारुदत्त को) स्नान कराया और यवागू (जौ का माँड़) पिलाया। इस प्रकार, वहाँ उसके कुछ दिन बीते । एक दिन उस परिव्राजक ने आग धधकाकर उससे कहा : “देखो !” इसके बाद उसने काले लोहे पर रस चुपड़कर उसे अंगारों में छोड़ दिया और फिर भाथी से धौंकना शुरू किया। थोड़ी ही देर में वह लोहा उत्तम सोना बन गया। उसके बाद परिव्राजक ने उससे पूछा : “देखा तुमने?" “अत्यन्त अद्भुत देखा !” उसने कहा। परिव्राजक ने पुन: कहा : “अगर मेरे पास सोना नहीं है, तो भी मैं बहुत बड़ा सोनेवाला हूँ। तुम्हें देखकर तुम्हारे प्रति मेरा पुत्रवत् स्नेह उमड़ आया है। तुम धन के लिए क्लेश उठा रहे हो, अत: तुम्हारे लिए 'शतसहस्रवेधी' रस लाने जा रहा हूँ। इसके बाद तुम कृतार्थ होकर अपने घर लौट जाओगे। पहले का लाया हुआ रस तो बहुत थोड़ा है।" वह चारुदत्त परिव्राजक की बात पर लट्ट हो गया और बोला : “तात ! ऐसा ही करें।” परिव्राजक ने रस लाने की तैयारी शुरू की। अनेक उपयोगी उपकरण अपने साथ रखे, पाथेय भी रख लिया। और, चारुदत्त को साथ लेकर रात के अंधेरे में गाँव से निकल पड़ा। क्रमश; वे दोनों हिंस्रक जन्तुओं से भरे घोर जंगल में पहुँचे। रात में वे चलते थे और दिन में पुलिन्दों के भय से छिपकर रहते थे। क्रम से वे पहाड़ की गुफा से निकलकर एक तृणाच्छन्न कुएँ के पास पहुँचे । परिव्राजक वहीं ठहर गया और चारुदत्त से भी विश्राम करने को कहा। उसके बाद वह परिव्राजक चमड़े का वस्त्र पहनकर कुएँ में पैठने लगा। चारुदत्त के जिज्ञासा. करने पर उसने कहा : “घास से ढका यह कुआँ औंधे मुँह प्याले की तरह है। इसी के मध्यभाग में वज्रकुण्ड है। उसी कुण्ड में यह रस रिसता रहता है। मैं कुएँ में उतरता हूँ। तुम छोटी मचिया पर तूंबा रखकर नीचे लटकाना और तब मैं रस से ह्बा भरूँगा।” चारुदत्त ने परिव्राजक से कहा : “मैं ही कुएँ में उतरता हूँ।" "नहीं बेटे ! तुम डर जाओगे।" परिव्राजक ने स्नेह के साथ कहा। “नहीं डरूँगा।” यह कहकर चारुदत्त ने चमड़े का कूर्पासक (कुरता) पहना और कुएँ में उतरने लगा। परिव्राजक ने योगवर्तिका जलाकर उसी के प्रकाश में चारुदत्त को कुएँ में उतार दिया। कुएँ के तल पर पहुँचते ही रसकुण्ड दिखाई पड़ा। परिव्राजक ने तूंबा लटकाया। चारुदत्तने करछुल से ख़ूबे में रस भरकर उसे मचिया पर रखा। परिव्राजक ने रस्सी खींचकर तूंबा ऊपर उठा लिया। चारुदत्त प्रतीक्षा करने लगा कि परिव्राजक पुन: मचिया को कुएँ में लटकायगा। देर होने पर चारुदत्त ने कुएँ से आवाज दी : “तात ! रस्सी लटकाइए।" कुआँ बहुत गहरा था। चारुदत्त जैसे महामूर्ख को कुएँ में छोड़कर परिव्राजक चला गया। निराश, किन्तु साहसी चारुदत्त उस कुएँ से बाहर निकलने का उपाय सोचने लगा। प्रस्तुत कथाप्रसंग में संघदासगणी द्वारा निर्दिष्ट लोहे को सोना बनानेवाला 'शतसहस्रवेधी' रस और उसके उद्गमस्थल वज्रकुण्ड, दोनों ही रहस्यात्मक हैं। किन्तु, लोहे से सोना बनाने की मूल परिकल्पना निराधार नहीं है। भारतीय आयुर्वेद-विद्या के लिए यह कार्य भी असम्भव नहीं था। आचार्य वाग्भट-विरचित 'रसरत्नसमुच्चय' में, सोने के प्रकरण में प्राकृतिक और कृत्रिम सोने की
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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