SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ २०७ पड़ जाते हैं और कुछ में मांस उभर आता है। सुश्रुत ने दोनों के निवारण के लिए अलग-अलग नुस्खे दिये हैं। चिरचिरी की जड़, असगन्ध, तालपत्री (मुसली), सुवर्चला (सूर्यमुखी या धुरफी) की जड़ एवं काकोल्यादिगण (काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषभक, मेदा, महामेदा, ऋद्धि वृद्धि, बला, अतिबला) में पठित ओषधियाँ उत्सादन या मांस भरने के कार्य में प्रशस्त हैं; फिर कासीस, सैन्धवनमक, किण्व, कुरुविन्द (लाल रत्न), मैनसिल, मुरगे के अण्डे के छिलके, चमेली की कली, शिरीष, करंज और धातु (हरिताल, पुष्प-कासीस, रसांजन आदि) के चूर्ण उभरे हुए मांस को काटने के लिए प्रशस्त हैं । संघदासगणी की 'संरोहिणी' सुश्रुत का 'उत्सादन' प्रतीत होती हैं । संघदासगणी जाँघ चीरने से उत्पन्न घाव के गड्ढे को भरने के लिए 'संरोहिणी' का प्रयोग किया गया है और सुश्रुत ने इसे 'उत्सादन' कहा है। संघदासगणी ने विना शस्त्रकर्म के ही ओषधि द्वारा शल्यचिकित्सा का निर्देश किया है। ये ओषधियाँ हैं: विशल्यकरणी, संजीवनी और संरोहणी (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १३८) । 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' में मांसविवर्द्धनी और वर्णप्रसादिनी, इन दो अतिरिक्त ओषधियों के नाम परिगणित हैं। चूँकि, संरोहिणी में ही मांसवर्द्धन और चमड़े के रंग के प्रसादन (वर्णप्रसादन) के गुण समाहित हैं, इसलिए संघदासगणी ने तीन ही ओषधियाँ स्वीकृत की हैं। हालाँकि, संघदासगणी को चार ओषधियों की नामावली देनी चाहिए थी। क्योंकि, विद्याधर के चर्मकोष में आत्मरक्षार्थ रहनेवाली चार ओषधियों की चर्चा (चारुदत्त की आत्मकथा में) उन्होंने की है : "विज्जाहराणं किल चम्मरयणमंडुक्कीसु ओसहीओ चत्तारि अत्ताणं रक्खिउं । (तत्रैव)। उक्त शल्यौषधियों की पूर्व-परीक्षा के लिए चारुदत्त ने अपने गोमुख आदि मित्रों से कहा कि सिल पर ओषधि को पीसो, फिर क्षीरवृक्ष में शल्य चुभोकर उसपर ओषधि की परीक्षा करो। फिर विद्याधर को जीवित करो। ज्ञातव्य है कि पाँच लोहे की कीलों से बिंधा हुआ यह विद्याधर कदम्ब के पेड़ से चिपका हुआ पाया गया था। परीक्षा के क्रम में पता चला कि चारों ओषधियों में कोई शल्य निकालनेवाली है, तो कोई संजीवनी है, तो कोई घाव भरनेवाली। यहाँ भी कथाकार ने चार दवाओं की चर्चा करके तीन के ही विवरण दिये हैं। इसे कथाकार का प्रमाद ही माना जायगा, उसके तीन दीन ओषधियों की स्वीकृति के सम्बन्ध में चाहे हम जो तर्क दें। ___ उक्त ओषधियों के प्रयोग और उसके चमत्कार से चित्त चकित हो जाता है। वे सभी मित्र विद्याधर के पास गये। दोने में ओषधि लेकर उसे पहले ललाट पर ठुकी प्राणघातक कील पर चुपड़ दिया। धूप में तप्त कमल की तरह कील निकलकर धरती पर गिर पड़ी। उसने अपना मुँह थोड़ा ऊपर उठाया। मरुभूति ने उसे सहारा दिया। तदनन्तर, चतुर मित्रों ने उस विद्याधर के दोनों हाथ कील से मुक्त कर दिये। उसके हाथों को हरिसिंह और तमन्तक ने सहारा दिया। विद्याधर के शत्रु ने उसके मर्मस्थलों को छोड़कर कीलें ठोकी थीं, इसलिए उसका मुख विवर्ण नहीं हुआ था। इसके बाद उसके दोनों पैरों को कीलमुक्त कर दिया गया और फिर पीताम्बर-उत्तरीयधारी उस विद्याधर को केले के पत्ते के बिछा वन पर लिटा दिया गया। अन्य मित्रों ने विद्याधरके घावों पर संरोहिणी ओषधि लगा दी। जल के छीटे और केले के पत्ते की हवा से उसे होश आ गया। ___ इस प्रकार की ओषधि द्वारा शल्य निकालने की विधि सुश्रुत ने भी दी है। 'सुश्रुतसंहिता' के सूत्रस्थान के सत्ताईसवें 'शल्यापनीय' अध्याय में उन्होंने कहा है कि “कुछ शल्य (रज, तिनका १.सूत्रस्थान,३७.३०-३२
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy