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२०६ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा प्रियदर्शना-कथा के प्रसंगविशेष से अनुच्छायित है) में, पुण्ड्रा की उत्पत्ति के क्रम में, चित्रवेगा द्वारा कही गई आत्मकथा में उल्लेख है कि चित्रवेगा, वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में स्थित चमरचंचा नाम की नगरी के राजा पवनवेग की रानी पुष्कलवती की पुत्री के रूप में उत्पन्न हुई। वह किसी पुरुषोत्तम की महिला होगी, इस प्रत्याशा में उसे तबतक कुमार के रूप में रखने के लिए, उसकी जाँघ को चीरकर उसमें ओषधि भर दी गई। उसके प्रभाव से वह कुमार के रूप में देखी, सुनी
और समझी जाने लगी। एक बार वह जिनोत्सव के अवसर पर मन्दराचल पर गई । वहाँ वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में स्थित रत्नसंचयपुर के विद्याधरनरेश गरुडकेतु के पुत्र और उसकी पत्नी लोकसुन्दरी के आत्मज का गरुडवेग ने उसे (चित्रवेगा को) लड़की के रूप में पहचान लिया और वह उसपर अतिशय अनुरक्त हो उठा। गरुडवेग के साथ जब उसका वाग्दान हो गया, तब उसकी जाँघ से वह औषधि निकाल दी गई और संरोहिणी (घाव भरनेवाली दवा) के प्रयोग से वह (चित्रवेगा) यथावत् हो गई। उसके बाद बड़े डाट-बाट से उसका गरुडवेग के साथ विवाह हुआ।
इस प्रकार, आत्मकथा कहने के बाद, विद्याधरी चित्रवेगा ने पुण्ड्रा की फुआ आर्या वसुमती को अपनी जाँघ के चीरे हुए स्थान के गड्ढे को दिखाया और वह औषधि भी उसने उसे दिखाई।
औषधि को बहुत प्रभावशाली जानकर आर्या वसुमती ने कौतूहलपूर्वक उसे (औषधि को) अपने पास रख लिया। उसके बाद चित्रवेगा ने वसुमती को संरोहिणी औषधि भी दिखाई, जिसे वसुमती ने वकह्रद से बड़ी कठिनाईं से प्राप्त की करलिया। कुछ दिन बीतने पर वसुमती की पतोहू (पुण्ड्र की पत्नी) ने पुत्री प्रसव की। तब वसुमती ने विद्याधरी से प्राप्त औषधि को नवजात कन्या की जाँघ में शल्यक्रिया द्वारा स्थापित कर दिया। इस बात को वसुमती, उसकी पतोहू और धाई के सिवा चौथा कोई व्यक्ति नहीं जानता था। उस लड़की का नाम पुण्ड्रा रखा गया था। चूँकि वसुदेव श्रेष्ठ पुरुष थे, इसलिए उन्होंने औषधि के बल से पुरुषभावापन्न युवती पुण्ड्रा को कुमारी के रूप में पहचान लिया। तब वसुमती ने पुण्ड्रा की जाँघ चीर कर वह औषधि निकाल दी और संरोहिणी
औषधि लगादी, जिससे चीरे का घाव भर गया इस के बाद अनुकूल श्रेष्ठ वर वसुदेव के साथ पुण्ड्रा का विवाह हो गया। ____ आधुनिक चिकित्साविज्ञान-जगत् में शल्यक्रिया के द्वारा लिंग-परिवर्तन की कतिपय घटनाएँ देखी-सुनी गई हैं, किन्तु जाँघ चीरकर, उसमें औषधि रखकर लड़की को इच्छित काल तक लड़का बनाये रखने की घटना तो अपने-आपमें अतिशय अद्भुत है और वर्तमान शल्यशास्त्रियों के लिए एक चुनौती भी। यद्यपि, सहज ही यह सम्भावना नहीं की जा सकती कि संघदासगणी के काल में भारतीय शल्यक्रिया अपने अपनी वैज्ञानिकता के विकास पर पहुँच गई थी !
चरक ने छह शस्त्रकर्म माने हैं : पाटन, व्यधन, छेदन, लेखन, प्रोंछन और सीवन । लेकिन, सुश्रुत ने आठ शस्त्रकर्म स्वीकृत किये हैं: छेद्य, भेद्य, लेख्य, वेध्य, ऐष्य, आहार्य, विस्राव्य और सीव्य । वाग्भट ने सुश्रुत-प्रोक्त आठ शस्त्रकर्म के अतिरिक्त पाँच और गिनाये हैं: उत्पाटन, कुट्टन, मन्थन, ग्रहण और दाहन । 'वसुदेवहिण्डी' का उपर्युक्त शस्त्रकर्म छेदन या छेद्य के अन्तर्गत हैं। संघदासगणी ने जिसे संरोहिणी कहा है, उसे चरक, सुश्रुत और वाग्भट ने 'रोपण' की संज्ञा दी है। और, सबने, घाव भरने के औषधि-निर्देश के क्रम में रोपणतैल, रोपणचूर्ण, रोपणवर्तिका, रोपणकषाय, रसक्रिया आदि का नुस्खा भी प्रस्तुत किया है। शल्यक्रिया के बाद कुछ व्रणों में गड्ढे