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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
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शल्यचिकित्सा - प्रकरण :
‘चरकसंहिता,' ‘सुश्रुतसंहिता' और 'अष्टांगहृदय', इन तीनों प्राचीन आयुर्वेद-ग्रन्थों में शल्यचिकित्सा-विधि, अर्थात् शस्त्र और अस्त्रकर्म का विधिवत् उल्लेख हुआ है, किन्तु शल्यचिकित्सा के सांगोपांग उपदेश की दृष्टि से सुश्रुतसंहिता की पार्यन्तिकता प्रसिद्ध है। वर्तमान समय में जो 'सुश्रुतसंहिता' उपलब्ध है, उसपर संस्कृत में केवल डल्हणाचार्य की टीका मिलती है । उसमें उन्होंने जेज्जद, गयदास, भास्कर आदि विद्वानों की टीका और पंजिका का नाम-कीर्तन किया है। हालाँकि, इन आयुर्वेदाचार्यों का कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं मिलता। 'वसुदेवहिण्डी' में कई ऐसे आयुर्वेदिक प्रसंग भी आये हैं, जिनका समर्थन पूर्ववर्ती चरक और सुश्रुत तथा समकालीन वाग्भट या फि परवर्ती 'भावप्रकाश' आदि से नहीं होता । निश्चय ही, संघदासगणी का तद्विषयक आधार - स्रोत कुछ दूसरा रहा होगा, जिसके बारे में कुछ भी अनुमान करना कठिन है ।
सुश्रुत, स्पष्ट ही, चरक के परवर्ती काल की रचना है । इसलिए, चरक में जहाँ प्राचीनता के तत्त्व विद्यमान हैं, वहीं सुश्रुत में युगीन प्रथाओं का समावेश परिलक्षित होता है । सुश्रुत में जैन या बौद्धकालीन शब्दों का भी उल्लेख मिलता है । जैसे: विशिखा, भिक्षुसंघाटी आदि । 'सुश्रुतसंहिता' के प्रतिसंस्कर्त्ता के रूप में डल्हणाचार्य ने प्रसिद्ध बौद्धभिक्षु नागार्जुन का नामोल्लेख किया है; किन्तु यह विवादास्पद है । 'सुश्रुतसंहिता' के डॉ. भास्कर गोविन्द घाणेकर द्वारा मूल-सह अनूदित संस्करण की भूमिका में लिखा है कि चूँकि 'सुश्रुतसंहिता' में ब्राह्मणों की प्रधानता है, इसलिए यह, बौद्धों के उदयकाल के पश्चात्, जब पुष्यमित्र ने पुनः ब्राह्मणों का राज्य स्थापित किया, निर्मित हुई है। बौद्धकाल में आयुर्वेद की विशेष उन्नति हुई थी । तक्षशिला का विश्वविद्यालय आयुर्वेद के लिए प्रसिद्ध था । बौद्धकालीन प्रसिद्ध चिकित्सक जीवक ने यहीं शिक्षा ग्रहण की थी। किन्तु इस सन्दर्भ में यह भी स्मरणीय है कि अहिंसावादी बौद्धों के कारण ही पूर्ववर्त्ती काल में भारतीय शल्यशास्त्र (सर्जरी) का पर्याप्तं ह्रास हुआ। फिर भी, आधुनिक शल्यशास्त्रज्ञ आचार्य सुश्रुत को ही शल्यशास्त्र का पिता मानते हैं ।
'वसुदेवहिण्डी' में शल्यशास्त्र से सम्बद्ध कई ऐसे प्रसंग आये हैं, जिनका विवेचन और विवरण प्राचीन भारतीय शल्यशास्त्र के परिप्रेक्ष्य में करना समीचीन होगा। 'वसुदेवहिण्डी' की कथाओं से स्पष्ट है कि चिकित्सा के सन्दर्भ में संघदासगणी तथाकथित अहिंसावादी नहीं थे । हालाँकि, डल्हणाचार्य ने शरीर - हिंसक कर्म को शस्त्रकर्म (चीर-फाड़) कहा है और शरीर - अहिंसक कर्म को अस्त्रकर्म । फिर भी, चूँकि यह कार्य पर को दु:खहीन करने से सम्बद्ध है, इसलिए हिंसामूलक होते हुए भी परिणामत: अहिंसामूलक है । इस प्रसंग से यह भी संकेतित है कि संघदासगणी के काल में भारतीय शल्य-चिकित्सा तातोऽधिक विकसित हो चुकी थी ।
संघदासगणी ने एक ओर शल्यचिकित्सा का उपदेश किया है, तो दूसरी ओर विशल्यीकरण की ओषधियों' का भी निर्देश किया है । पुण्ड्रालम्भ की कथा (जो 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' की
१. संस्कृत में 'ओषधि' का बड़ा व्यापक अर्थ है। ओषधि की परिभाषा है : 'फलपाकान्ता ओषधयः ।' अर्थात्, फल पक जाने के बाद नष्ट हो जानेवाले सभी प्रकार के पौधे 'ओषधि' हैं। 'ओषधि' शब्द का ही 'औषधि' के रूप में भी प्रयोग कोशकार आप्टे ने स्वीकार किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ में, दवा के समष्ट्यात्मक अर्थ (वनस्पति, जड़ी-बूटी और उससे निर्मित औषध) के लिए 'ओषधि' का प्रयोग, जो प्राचीन आयुर्वेदाचार्यों को भी अभिमत है, किया गया है। - ले.