________________
१८८
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा वट्टियकडिप्पएसो, तुरगगुज्झदेसो, करिकराकारोरुजुयलो, निगूढजाणुमंडलो, कुरुविंदावत्तसंठियपसत्यजंघो, कणयकुम्मसरिसपादजुयलो, मधुरगंभीरमणहरगिरो, वसभललियगमणो, पभापरिक्खित्तकंतरूवो।" (नीलयशालम्भ : पृ. १६२) यहाँ ध्यातव्य है कि सृष्टि के आदिकाल के कुलकरों का अंगलक्षण तो मिथक का विषय है। वे आकृत्या सैकड़ों धनुष-प्रमाण ऊँचे होते थे। एक धनुष का प्रमाण चार हाथ होता था (तत्रैव: पृ. १५७) ।
वज्रजंघ भी लक्षणशास्त्र की दृष्टि से सर्वांगसुन्दर था (तत्रैव) । राजा सगर की भी शरीराकृति लक्षणयुक्त थी (सोमश्रीलम्भ) । सोमश्री के भी मुख, आँख, दाँत, हाथ, पैर, जघन और स्तनकलश बहुत ही प्रशस्त थे। स्नान करते समय उसके इन प्रशस्त अंगों को वसुदेव ने देखा था (तत्रैव) । मनोहरभाषिणी राजकन्या अश्वसेना (अश्वसेनालम्भ) तथा विद्याधरराज नरसिंह की नातिन प्रभावती के भी अंग परम सुन्दर थे (प्रभावतीलम्भ) । कामदेव श्रेष्ठी की पुत्री बन्धुमती को भी 'पसत्थपाणि-पाय-जंघोरु-सोणि-मंडल-मज्झ-थण-वयणयंदा-संथाण-गमण-भणिया' कहा गया है (बन्धुमतीलम्भ)।
श्रमण-सिद्धान्त के अनुसार, मनुष्य शुभकर्म के उदय से यदि प्रशस्त सुलक्षण अंगों को प्राप्त करता है, तो अशुभ कार्य के उदय से अप्रशस्त कुलक्षण और अनगढ़ शरीर उपलब्ध करता है। रक्तवतीलम्भ की लशुनिका दासी अपने अशुभ कर्म के उदय से ही लसुणगंधमुही' हुई थी। क्रोध
और क्षमा का भी अंगलक्षण पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। संघदासगणी ने इसपर बहुत ही जमकर विचार किया है। सोलहवें बालचन्द्रालम्भ में उनका एतद्विषयक वक्तव्य कथा-माध्यम से मनोवैज्ञानिक अनुबन्ध के साथ इस प्रकार मुखर हुआ है :
मुनि संजयन्त जिज्ञासु विद्याधरों से कहते हैं : “जो जीव दूसरे के प्रति रुष्ट होने के कारण हृदय में अमर्ष धारण करता है, किन्तु उसे कार्यान्वित नहीं करता, वह क्रोधाग्नि से भीतर-ही-भीतर सुलगते रहने से विवर्णमुख और परुषकान्ति होकर व्यर्थ ही सन्ताप झेलता है। क्रुद्ध होकर जो व्यक्ति दूसरे को दुःख पहुँचाना चाहता है, वह पहले अपने ही शरीर को रोषाग्नि की ज्वाला में जलाता है, पीछे कारण के अनुसार दूसरे को दुःख पहुँचे या न पहुँचे। जिस प्रकार कोई व्यक्ति अज्ञतादोषवश दूसरे को जलाने के लिए यदि अपनी उँगली जलाता है, तो पहले वह अपने को ही जलाता है, पीछे दूसरा कोई जले या न जले। और फिर, समर्थ होकर जो व्यक्ति किसी दूसरे निरपराध को आक्रोश, वध और बन्धन द्वारा कष्ट देता है, वह क्रोधदग्ध, निपुण, निर्दय, पापाचारी, अदर्शनीय और परित्याज्य माना जाकर निन्दा का पात्र बनता है। और फिर, जो जीव क्षमापक्ष का आश्रय लेता है, वह सन्तापरहित, सौम्य और सुखी जीवन जीता है, सज्जन उसका आदर करते हैं और इस लोक में वह पूजनीय तथा यश का भागी होता है और परलोक में, मनुष्यभव या देवभव में जन-नयन-मनोहर रूप और मधुर वाणी से युक्त होकर उस भव के योग्य सुख भोगता है और तदनुसार स्थान और मान का अधिकारी होता है (पृ. २६३)।"
चौदहवें मदनवेगालम्भ में कथा आई है कि पाश्री जब पूर्वभव में अंजनसेना ब्राह्मणपुत्री के रूप में उत्पन्न हुई थी, तब वह अशुभ नामकर्म (शारीरिक गुण) के उदय से विकृत अंगलक्षणोंवाली थी। उसके केश रुखड़े और भूरे थे। आँखें थोड़ी पीली थीं। दाँत ऊपर-नीचे