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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा उसे रसातल भिजवा दिया था। उसके बाद वह राजा सगर को उसी हिंसाकर्म से नरक भेजने का उपक्रम करने लगा। इसी क्रम में उसने राजा सगर को पशुवध के प्रति विश्वास दिलाने के लिए अपने विद्याबल से वसु को विमान द्वारा स्वर्ग जाते हुए दिखलाया। महाकाल को राजा सगर से पूर्वभव का
वैर था, इसलिए उसे सशरीर स्वर्ग ले चलने का प्रलोभन देकर उससे घोर हिंसा करवाई (तुल. : ब्राह्मण पुराणों की प्रसिद्ध त्रिशंकु-कथा)। इसके बाद उसपर प्राणघातक अंकमुखी, श्येनमुखी, महाचुल्ली
और किरातरूपिणी विद्याओं का प्रयोग किया (सोमश्रीलम्भ : पृ. १९३) । इस प्रकार, प्राणघातक और प्राणरक्षक, दोनों विद्याओं का विकास हुआ था।
विद्या से भ्रष्ट हो जाने पर साधक या साधिका को नागपाश में बँधना पड़ता था और इस प्रकार उसका प्राण संकट में पड़ जाता था। गगनवल्लभ नगर के राजा चन्द्राभ और रानी मेनका की पुत्री तथा वसुदेव की विद्याधरी पत्नी वेगवती की बाल्यसखी बालचन्द्रा (वसुदेव की अन्य पत्नी) विद्याभ्रष्ट हो जाने के कारण नागपाश में बँध गई थी, जिसे वेगवती के आग्रह पर वसुदेव ने उस बन्धन से मुक्त किया था (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५१) । अंगारक भी जब विद्याभ्रष्ट हो गया था, तब उसने धतूरे का धुआँ पीते हुए बड़े कष्ट से विद्या की पुनः साधना की थी (नीलयशालम्भ: पृ. १७९) ।
विद्याएँ या महाविद्याएँ कलक्रमागत होती थीं। किसी-किसी कुल की महाविद्याएँ तो विशेष कष्टसाध्य और विन करनेवाली होती थीं। इसीलिए, बालचन्द्रा ने बन्धनमुक्त होने के बाद वसुदेव से कृतज्ञता के स्वरों में कहा था : “आर्यपुत्र ! मेरे कुल में विशेषत: कष्टसाध्य और विघ्न करनेवाली महाविद्याएँ हैं। आपकी कृपा से मेरी विद्या सिद्ध हो गई।” नागराज धरण विद्याओं के अधिपति थे। सभी विद्याएँ उनकी वशंवदा थीं। विद्या साधना के नियमों का नियन्त्रण वही करते थे। बालचन्द्रा के कुल में नागराज धरण के अभिशाप-दोष से ही लड़कियों को महाविद्याएँ कष्ट से सिद्ध होती थीं (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २६४) । कभी-कभी दो विद्याधरियाँ आपस में लड़ते समय एक दूसरे की विद्या छीन लेती थीं। शूर्पणखी ने वेगवती से लड़ते समय उसकी विद्या छीन ली थी।
ऋषियों को आघात पहुँचानेवाले और अनिच्छुक या सपतिक स्त्रियों के साथ बलप्रयोग करनेवाले सविद्य विद्याधर की विद्याओं को नागराज धरण छीन लेते थे। और फिर, क्षमा-प्रार्थना करने पर विद्याएँ लौटा भी देते थे। एक बार गगनवल्लभ नगर के राजा विद्युइंष्ट्र ने विद्याधरों को अपने वश में कर लिया और उनसे, अपने प्रताप के बल से वैताढ्य पर्वत पर बलपूर्वक लाये गये व्रतनिष्ठ साधुओं को मार डालने को कहा। विद्युद्दष्ट्र के अधीनस्थ विद्याधरों ने अपनी-अपनी विद्या का आवाहन किया और वे अस्त्र उठाकर उन मुनियों को मारने की इच्छा से खड़े हो गये। उसी समय नागराज धरण अधिष्ठापक (ऊर्ध्वलोकवत्ती) देवों से विदा लेकर अष्टापद पर्वत की
ओर जा रहे थे। रास्ते में विद्याधरों को ऋषिघात के लिए खड़े देखकर वह रुष्ट हो गये और 'गुण-दोष का विचार न करनेवाले आपका कल्याण नहीं है' यह कहकर उन्होंने विद्याधरों की विद्याएँ छीन ली (तत्रैव : पृ. २५०-२५१) । लेकिन, जब विद्याधरों ने नागराज धरण के पैरों पर गिरकर निवेदन किया कि 'स्वामी ! आपका कोप हमने देखा है। अब आप हमारी विद्याएं लौटाने की कृपा करें, तब उन्होंने इस शर्त पर विद्याएँ लौटा दी कि “आप जिन विद्याओं की साधना करेंगे, वे आपकी वशंवद होंगी। सिद्धविद्य होकर भी आप यदि जिनायतन में या साधु या किसी