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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
१६९ दम्पति के प्रति अपराध करेंगे, तो पुन: विद्याभ्रष्ट हो जायेंगे। और तब, विद्युइंष्ट्र के वंशजों को कभी महाविद्याएँ सिद्ध नहीं होंगी। स्त्रियों को भी बहुत विघ्न के साथ, दुःखपूर्ण साधना द्वारा या देव, साधु और महापुरुष के दर्शन से सुखपूर्वक भी विद्याएँ सिद्ध होंगी।" इस प्रकार, देवों के समक्ष विद्याधरों की विद्याप्राप्ति-विषयक स्थिति की स्थापना करके नागराज धरण विदा हो गये (तत्रैव : पृ. २६४) । इसी नियम के अनुसार, बालचन्द्रा को, वसुदेव जैसे महापुरुष के दर्शन-मात्र से ही विद्या की सिद्धि अनायास प्राप्त हो गई।
जैसा पहले कहा गया, उपरिविवेचित एवं यथाविवृत समस्त मायाकृत विद्याओं की परिकल्पना देवियों के रूप में की गई है। ये विद्याएँ मन्त्ररूपात्मक होती थीं। क्योंकि, तन्त्रशास्त्र में मान्त्रिक उपासना अपनी रहस्यात्मकता एवं परोक्षभाव से फल देने की शक्तिविशिष्टता के कारण अतिशय महत्त्वपूर्ण मानी गई है। इसीलिए, ये विद्याएँ गुह्यातिगुह्य या परम गोपनीय समझी जाती थीं। इन विद्याओं को ग्रहण करने तथा इन्हें सिद्ध करने की अपनी विशिष्ट विधि या पुरश्चरण की पद्धति होती थी। ये विद्याएँ विशेषकर कृष्ण चतुर्दशी के दिन ग्रहण की जाती थीं। इनकी सिद्धि के लिए साधक-साधिकाएँ प्राय: श्मशान, पर्वत-शिखर, जंगल, तीर्थभूमि, शून्य देवालय आदि स्थानों में साधना किया करते थे। इस साधना-क्रम में विद्याओं का विधिवत् आवाहन और विसर्जन किया जाता था। विद्याओं के सिद्ध होने पर उनकी सिद्धि का परीक्षण भी किया जाता था। विद्याधर के स्पर्श से मृत व्यक्ति जीवित हो उठता था। विद्यासिद्ध व्यक्ति अपराजेय होता था। विद्यासम्पन्न पुरुष पर किसी अन्य की विद्याओं का कोई असर नहीं होता था। इसीलिए, जम्बूस्वामी द्वारा प्रयुक्त 'स्तम्भनी' विद्या से विद्यासिद्ध प्रभव किसी प्रकार प्रभावित नहीं हुआ (कथोत्पत्ति : पृ. ७) ।
विद्याएँ पूर्वभव की परम्परा से भी प्राप्त होती थीं, अर्थात् पूर्वजन्मार्जित विद्याएँ वर्तमान जन्म में भी साथ देती थीं। ये विद्याएँ बड़े प्रलोभन की वस्तु मानी जाती थीं। इसीलिए, इनकी सिद्धि के निमित्त साधक-साधिकाएँ अपनी जान की बाजी लगा देने को भी तैयार रहते थे। विद्या सिद्ध करते समय विघ्नकारिणी देवियाँ स्त्रीरूप धारण कर अपने शृंगारयुक्त स्वरों और अनेक प्रकार के हाव-भावों से साधकों को मोह लेने का प्रयास करती थीं। ये विद्याएँ ज्ञानात्मक होने की अपेक्षा क्रियात्मक अधिक होती थीं। इसीलिए, ज्ञानजगत् में तान्त्रिक क्रियाएँ अधिक मूल्य नहीं आयत्त कर सकीं। फलतः, ऋद्धियों और चमत्कारों में, उनके ज्ञाता भी अधिक अभिरुचि नहीं प्रदर्शित करते थे।
__ आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी अनेक चमत्कारी योगी पुरुष हुए हैं और हैं भी, जिनमें परमहंस स्वामी विशुद्धानन्द और उनके मनीषी शिष्य पुण्यश्लोक महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज आदि के महनीय नाम उल्लेख्य हैं। कविराजजी तो वर्तमान साईं बाबा के यौगिक चमत्कारों के प्रति अतिशय आस्थावान् थे। वह स्वयं इसे 'अभ्यास-योग' मानते थे और कहते थे, “विज्ञान की आश्चर्यजनक प्रगति की चकाचौंध से चकित होने की आवश्यकता नहीं है । विज्ञान जिसकी सृष्टि कर रहा है, वह योगी की इच्छा से भी सम्पन्न हो सकता है।" उन्होंने योगी की चितिशक्ति का स्वरूप बतलाते हुए अपने गुरु स्वामी परमहंस विशुद्धानन्द के 'सूर्यविज्ञान' का उल्लेखपूर्वक कहा है : “योगसृष्टि इच्छाशक्ति से होती है। इस सृष्टि में पृथक् उपादान की आवश्यकता नहीं रहती। उपादान वस्तुत: स्रष्टा की अपनी आत्मा को ही जानना चाहिए, अर्थात् इच्छाशक्तिमूलक सृष्टि में उपादान और निमित्त दोनों अभिन्न रहते हैं। आत्मा, अर्थात् योगी स्वयं अपने स्वरूप से बाहर किसी उपादान की अपेक्षा न रखकर इच्छाशक्ति के प्रभाव से अन्दर स्थित अभिलषित पदार्थ को