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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
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में, जैसा पहले कहा गया है, नागराज धरण ने प्रसन्न होकर नमि- विनमि को गन्धर्व और नागजाति की अड़तालीस हजार विद्याएँ प्रदान की थीं। नागराज की कृपा से विनमि ने वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में गगनवल्लभ प्रभृति साठ नगर बसाये थे और नमि ने दक्षिण श्रेणी में रथनूपुरचक्रवाल प्रभृति पचास नगर बसाये । वैताढ्य पर्वत पर विद्या के प्रलोभन से जिन-जिन जनपदों से जो-जो मनुष्य आये, उनके जनपद उन्हीं के नामों से प्रसिद्ध हुए । विद्याओं की संज्ञाओं के आधार पर विद्याधरों के निकायों की रचना नमि और विनमि ने की। ये सभी विद्याधर गन्धर्व और नागकुल के थे । निकायों की रचना इस प्रकार की गई थी :
गौरी विद्या की संज्ञा से गौरिक, मनुविद्या से मनुपूर्वक, गान्धारी विद्या से गान्धार, मानवी से मानव, केशिका से केशिकपूर्वक, भूमितुण्डक विद्याधिपति की संज्ञा से भूमितुण्डक, मूलवीर्या विद्या से मूलवीर्य, शंकुका से शंकुक, पाण्डुकी से पाण्डुक, कालकी से कालकेय, मातंगी विद्या से मातंग, पार्वती से पार्वतेय, वंशलता से वंशलता, पांशुमूलिका से पांशुमूलक, वृक्षमूलिका से वृक्षमूलक तथा कालकी से कालकेश । नमि और विनमि ने इन सोलह विद्याओं के आठ-आठ निकाय आपस में बाँट लिये। इसके बाद ये दोनों कुमार विद्याओं के बल से देव के समान प्रभावशाली होकर वजन - परिजन सहित एक साथ मनुष्य और देव का भोग-विलास प्राप्त करने लगे । उन्होंने नगरों और सभामण्डपों में ऋषभस्वामी की प्रतिमा को देवता की भाँति स्थापित कराया और प्रत्येक विद्याधर- निकाय में विद्या के अधिपति देवता की प्रतिष्ठा कराई। दोनों ही कुमारों ने अपने-अपने पुत्रों और क्षत्रियों से सम्बद्ध नगरों का नवनिर्माण और ततोऽधिक विस्तार किया। इस प्रकार, विद्या से सम्पन्न विद्याधर अपने को देवतुल्य मानते थे, तो विद्याधरियाँ अपने को देवी के समान समझती थीं ।
मुनिवृत्तिधारी राजकुमार भी विद्यासम्पन्न होने पर सर्वविशिष्ट हो जाते थे । हस्तिनापुर के राजा महापद्म के कनिष्ठ पुत्र विष्णुकुमार ने जब अनगार धर्म स्वीकार किया, तब उसने स्वीकृत धर्म के प्रति अविचलित श्रद्धा रखकर, मन्दार पर्वत पर साठ हजार वर्षों तक परम दुश्चर तप करके विकुर्व्वण - ऋद्धि, सूक्ष्म - स्थूल - विविधरूपकारिणी, अन्तर्धानी, गगनगामिनी आदि अनेक लब्धियाँ (विद्याएँ) प्राप्त की थीं । अर्थात् वह ऐसी विशिष्ट शक्ति से सम्पन्न हो गया था, जिससे अभीप्सित वस्तु के तत्क्षण निर्माण में समर्थ था; उसका शरीर सूक्ष्म-स्थूल आदि अनेक स्वरूपों में छूमन्तर से बदल सकता था, साथ ही वह अनेक क्रियाओं को करने में समर्थ था । वह जब चाहता, अन्तर्हित- अदृश्य हो सकता था और आकाशगमन की भी क्षमता उसमें थी । इसीलिए, उसे जब नमुचि ने तीन पग भूमि दी, तब विकुर्वित विराट् शरीरवाले उस (विष्णु) का एक पग हस्तिनापुर (दिल्ली) में था और दूसरा पग मन्दारपर्वत ( भागलपुर : बिहार) पर । क्रुद्ध होने पर वह तीनों लोकों को निगलने में समर्थ था। एक आकाशचारी मुनि को साथ लेकर वह आकाशमार्ग से उड़ता हुआ क्षणभर में मन्दार पर्वत से हस्तिनापुर पहुँच गया था (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १२८-१२९) !
विद्या के द्वारा प्राणहत्या तक की जा सकती थी, अर्थात् विद्याओं से मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण, स्तम्भन आदि समस्त आभिचारिक क्रियाएँ सम्भव थीं। इसलिए, विद्याओं द्वारा हित और अहित, इष्ट और अनिष्ट, दोनों प्रकार के कार्यों की सिद्धि अनायास की जा सकती थी । शाण्डिल्यरूपधारी महाकाल हिंसा का समर्थक था । उसने चेदिराज उपरिचर वसु द्वारा घोर हिंसा (पशुवध) कराकर