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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा कथोत्पत्ति : १. जम्बूस्वामी की पूर्वभवकथा (पृ. २०), २. सागरदत्त-शिवकुमार-भव की कथा (पृ. २३); धम्मिलहिण्डी : ३. राजा जितशत्रु के पूर्वभव की कथा (पृ. ३८); ४. धम्मिल्ल के पूर्वभव की कथा (पृ. ७४); पीठिका : ५. प्रद्युम्न और शाम्ब की पूर्वभव-कथा (पृ. ८५); ६. राहुक के पूर्वभव की कथा (पृ. ८६); प्रतिमुख : ७. अन्धकवृष्णि के पूर्वभव की कथा (पृ.११२); शरीर : ८. वसुदेव के पूर्वभव की कथा (पृ. ११४), नीलयशालम्भ : ९. ललितांगदेव के पूर्वभव की कथा (पृ. १६६); रक्तवतीलम्भ : १०. रक्तवती और लशुनिका के पूर्वभव की कथा (पृ. २१९); सोमश्रीलम्भ : ११. सोमश्री के पूर्वभव की कथा (पृ. २२२); बालचन्द्रालम्भ : १२. सिंहचन्द्र-पूर्णचन्द्र की पूर्वभवकथा (पृ. २५४); बन्धुमतीलम्भ : १३. मृगध्वज और भद्रक के पूर्वभव की कथा (पृ. २७५); केतुमतीलम्भ : १४. शान्तिजिन की पूर्वभव-कथा (पृ. ३१३); १५. मणिकुण्डली, इन्दुसेना और बिन्दुसेना के पूर्वभव की कथा (पृ. ३२९); १८. अजितसेन के पूर्वभव की कथा (पृ. ३३०); १९. कुक्कुट-युगल के पूर्वभव की कथा (पृ. ३३३); २०. चन्दनतिलक और विदिततिलक विद्याधर की पूर्वभव-कथा (पृ. ३३४), २१. सिंहस्थ विद्याधर के पूर्वभव की कथा (पृ. ३३६); २२. कबूतर और बाज के पूर्वभव की कथा (पृ. ३३८); २३. सुरूप यक्ष के पूर्वभव की कथा (पृ. ३३८); ललितश्रीलम्भ : २४. ललितश्री का पूर्वभव (पृ. २६२); देवकीलम्भ : २५. कंस का पूर्वभव (पृ. ३६८) आदि ।
पूर्वभव से सम्बद्ध उक्त समस्त प्रकीर्ण कथाएँ पूर्वदीप्ति-प्रणाली में निबद्ध हुई हैं। पूर्वभव की इन कथाओं में कुछ तो पूर्णकथा हैं और कुछ अंशकथा । पूर्णकथा का वैशिष्ट्य है कि इसे संघदासगणी ने कथा के आरम्भ में उपस्थित करके अन्त तक मूलकथा के साथ इसका निर्वाह किया है और अंशकथा की प्रस्तुति कथा के आरम्भ या मध्य में सहसा किसी पात्र की स्मृति को जगाने और कुछ समय के लिए अपने अतीत में उसके खो जाने के उद्देश्य से की गई है। ___'वसुदेवहिण्डी' की प्रकीर्ण कथाएँ अपने स्थापत्य की दृष्टि से कथोत्थप्ररोह-शिल्प के रूप में भी उपस्थित होती हैं। प्याज के छिलके या केले के स्तम्भ की परत के समान जहाँ एक कथा से दूसरी-तीसरी कथा निकलती जाय या वट के प्ररोह की भाँति शाखा-पर-शाखा फूटती जाय, वहाँ ही इस शिल्प की स्थिति मानी जाती है। इसलिए, 'वसुदेवहिण्डी' में केवल वसुदेव का ही भ्रमण-वृत्तान्त नहीं है, अपितु इसमें अनेक प्रकीर्ण कथाओं का संघट्ट है, जो अपने पाठकों का मनोरंजन तो करती ही हैं, उन्हें लोक-संस्कृति की महनीयता से भी विमोहित करती हैं । संघदासगणी की कथाबुद्धि निश्चय ही असाधारण है, तभी तो उन्होंने अपनी वर्णन-शैली को सहजग्राह्य और प्रभावशाली बनाकर कल्पनाशीलता और संवेदनप्रवणता के साथ अपनी स्मृति और रचनाशक्ति का उपयोग करते हुए कथासूत्र को जोड़ने का अद्भुत प्रयास किया है । यद्यपि, इस शिल्प के कारण संघदासगणी की यह बृहत्कथा एक दोष से भी आक्रान्त हो गई है। घटनाजाल की सघनता के कारण कथाएँ एकरस सपाटबयानी-मात्र होकर रह गई हैं। कथाओं के पात्रों का चारित्रिक उत्कर्ष या विकास का सूत्र कथाकार के हाथ से छूट-छूट-सा गया है। फिर भी, एकरसता दूर करने के लिए सुबुद्ध कथाकार ने सूक्ष्मतम कलाचेतना के साथ व्यापक और उदात्त जीवन का दृष्टिकोण रोमांस और प्रेम के पर्यावरण में उपन्यस्त कर अपनी रसग्राही मनीषा का विलक्षण परिचय दिया है। इस प्रकार, कथोत्थप्ररोह-शिल्प 'वसुदेवहिण्डी' की तीसरी विशेषता है।