________________
१३०
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा
१४. गुप्त रूप से नायिका का नायक के साथ अवैध यौन व्यापार (प्रियंगुसुन्दरी - लम्भ : पृ. २९२)
इन्द्रकेतु नामक विद्याधरनरेश के पुरुहूत और वासव नाम के दो पुत्र थे । वासव अपनी विशिष्ट शक्ति से निर्मित ऐरावत पर सवार होकर आकाशमार्ग से सम्पूर्ण भारतवर्ष का परिभ्रमण करता हुआ गौतम ऋषि के रमणीय आश्रम में उतरा । गौतम का पूर्वनाम काश्यप था । गोमेध यज्ञ करने के कारण उनसे अन्य सभी तपस्वी रुष्ट हो गये और उन्होंने उन्हें अन्धकूप में डाल दिया । कान्दर्पिक देव महर्षि गौतम के पुराने मित्र थे । उन्हें जब इस बात की सूचना मिली, तब वह वृषभ का रूप धारण कर कुएँ के पास आये और उन्होंने अपनी पूँछ अन्धकूप में लटका दी । महर्षि गौतम उस पूँछ को पकड़कर बाहर निकल आये और तभी से 'अन्धगौतम' कहलाने लगे। महर्षि गौतम से उनके देवमित्र कान्दर्पिक ने कहा: “देव अमोघदर्शी होते हैं । तुम्हें जो इच्छा हो, वर माँगो ।” तब महर्षि ने तपस्वी विष्टाश्रव की पत्नी मेनका की पुत्री अहल्या को पत्नी के रूप माँगा । देवों ने महर्षि को अहल्या दिलवा दी । तपस्वी गौतम ने अपने आश्रम से हटकर राजा अयोधन की राज्यसीमा में अवस्थित रमणीय जंगल में अपना आश्रम बनाया। राजा अयोधन देवाज्ञा से प्रेरित होकर भार में अनाज (चावल) भरवाकर गौतम ऋषि की सेवा में पहुँचवाने लगे ।
इन्द्रकेतु का पुत्र वासव स्त्रीलोलुप था। वह गौतम ऋषि के परोक्ष में उनकी पत्नी अहल्या के साथ सम्भोग करने लगा। एक बार जब वह सम्भोगरत था, तभी महर्षि गौतम फल, फूल और समिधा लेकर वापस आये। महर्षि को देखकर वासव डर गया और उसने बैल का रूप धारण किया । किन्तु गौतम ऋषि सही वस्तुस्थिति को जान गये और परस्त्रीगमन के दोष के कारण उन्होंने वासव को मार डाला ।
प्रस्तुत रूढकथा में अपने पति के परोक्ष में पत्नी का परपुरुष से यौन सम्बन्ध और पति द्वारा जार (परपुरुष) का वध के अतिरिक्त, रूप-परिवर्तन, विद्याबल से ऐरावत पर चढ़कर आकाश में विचरण, गोमेधयज्ञ का सार्वजनिक विरोध आदि कथारूढ़ियों का भी एकत्र समाहार हुआ है, साथ ही इस प्रसिद्ध पौराणिक कथा का जैन दृष्टि से लौकिक कथाभूमि पर पुनर्मूल्यांकन भी अपनी अभिनव रुचिरता और रोचकता के कारण विशेष महत्त्व रखता है ।
१५. विद्याबल से नायिका का वशीकरण (केतुमती- लम्भ: पृ. ३४८)
परिव्राजक-भक्त राजा जितशत्रु की रानी का नाम इन्द्रसेना था । वह मगधराज जरासन्ध की पुत्री थी। राजा के अन्तःपुर में परिव्राजकों का अबाध प्रवेश था। एक बार ऐसा हुआ कि राजा का अतिशय आदरपात्र शूरसेन नामक परिव्राजक रानी के प्रति आसक्त हो उठा। उसने अपने विद्याबल से रानी को अपने वश में कर लिया। राजा को जब इस बात की सूचना मिली, तब उसने शूरसेन परिव्राजक को मरवा डाला। परिव्राजक के प्रति आसक्त इन्द्रसेना वियोगातुर रहने लगी और उसी स्थिति में वह पिशाच से आविष्ट हो गई । 'भदन्त को देखूँगी, इस प्रकार बकती हुई वह दिन-रात विलाप करती रहती । बन्धन, रुन्धन, यज्ञ, धूनी द्वारा अवपीडन, ओषधि-पान आदि क्रियाओं से भी चिकित्सक उसे प्रकृतिस्थ नहीं कर सके ।