________________
वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ
१२७ आज्ञा लेकर, कंस के साथ सिंहपुर के लिए प्रस्थान किया। सिंहरथ और वसुदेव में घोर युद्ध हुआ। अन्त में, वह सिंहरथ को बन्दी बनाकर अपने नगर में ले आये।
बड़े भाई समुद्रविजय ने वसुदेव का बड़ा आदर किया और फिर एकान्त में ले जाकर कहा : “सुनो कुमार ! क्रौष्टुकि नैमित्तिक (सियार की आवाज सुनकर उसपर विचार करनेवाला ज्योतिषी) ने पूछने पर बताया है कि कुमारी जीवयशा दोनों कुलों का नाश करनेवाली है, इसलिए वह तुम्हारे योग्य नहीं।" इसके बाद विमर्शानुसार, युद्ध में वसुदेव की सहायता करने के पुरस्कार-स्वरूप, वह लड़की कंस को दे देने का निर्णय किया गया। फिर, रसवणिक् को बुलवाकर उससे कंस की प्राप्ति की कथा सुनाने का आग्रह किया गया। रसवणिक् ने बताया : “यह बालक काँसे की पिटारी में यमुना में बहता हुआ मिला था। इसके साथ उग्रसेन नाम से अंकित मुद्रा थी।" जब यह बात सिद्ध हो गई कि कंस उग्रसेन का ही पुत्र है, तब उसे कुमारी जीवयशा दे दी गई।
कंस ने जब सुना कि जन्म लेते ही उसे पिता ने प्रवाहित कर दिया था, तब वह बड़ा रुष्ट हुआ और जरासन्ध से वरदान में मथुरा नगरी माँग ली। फिर, द्वेषवश उसने अपने पिता को बन्दी बना लिया और स्वयं राज्यभार संभालने लगा।
इस रूढकथा में ज्योतिषी द्वारा अशुभ शकुन के आधार पर भविष्यवाणी करने की चर्चा तो हुई ही है, साथ ही पिता द्वारा सन्तान के अनिष्टकारी होने की सम्भावना से उसे पहचान-चिह्न के साथ मंजूषा में रखकर जल में प्रवाहित करने की भी कथारूढि का समावेश हुआ है। इसके अतिरिक्त, राजपरिवार के बड़े और छोटे भाइयों के बीच गुप्त राजनीतिक परामर्श की परम्परागत कथारूढि का भी विनियोग हुआ है। इस प्रकार की घटनाएँ ऐतिहासिक हों या न हों, पर 'वसुदेवहिण्डी' के कविहृदय लेखक की कल्पना में इनका आविर्भाव अवश्य हुआ था। ११. ओषधि-प्रयोग (गन्धर्वदत्ता-लम्भ : पृ. १३८)
चारुदत्त की आत्मकथा में अमितगति विद्याधर के ललाट पर ठुकी कील को ओषधि के प्रयोग से निकालने की रूढकथा पर्याप्त मनोरंजक है। चारुदत्त ने साधु से सुनी हुई कथा को दुहराते हुए कहा कि विद्याधरों के पास रहनेवाले चमड़े के रत्नकोष (बटुए) में आत्मरक्षा के निमित्त चार ओषधियाँ रहती हैं। तब उसके गोमुख, हरिसिंह आदि मित्रों ने अमितगति विद्याधर का चर्मरत्नकोष खोला, तो चार उसमें ओषधियाँ दिखाई पड़ी। ओषधियों को सिल पर पीसा गया, फिर शल्यवृक्ष में कील चुभोकर उसपर प्रत्येक ओषधि का लेप लगाकर अलग-अलग उसकी परीक्षा की गई। परीक्षा के क्रम में पता चला कि उन ओषधियों में कोई शल्य निकालनेवाली है, तो कोई संजीवनी है, तो कोई घाव भरनेवाली।
चारुदत्त के मित्रों ने दोने में औषधि लेकर उसे विद्याधर के ललाट में ठुकी कील पर चुपड़ दिया। धूप में तप्त कमल की तरह कील निकलकर धरती पर गिर पड़ी। इसी प्रकार, विद्याधर के हाथों को भी कीलमुक्त कर दिया गया, फिर उसके पैरों को भी कील से मुक्ति मिली। उसके घाव पर संरोहणी (भरनेवाली) दवा लगा दी गई। उसके बाद जल के छींटे और केले के पत्ते की हवा से उसे होश में ले आया गया। होश में आते ही विद्याधर उठ खड़ा हुआ।