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वसदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बहत्कथा ९. देव द्वारा व्रतनिष्ठ तपस्वियों की परीक्षा (श्यामा-विजया-लम्भ : पृ. ११७-१८)
अतिसार का छद्मरोगी बनकर एक देव व्रतनिष्ठ नन्दिसेन के पास आया और उसे गालियाँ देता हुआ बोला : “तुम्हारा ही आसरा लेकर मैं ऐसी हालत में आया हूँ और तुम भोजनलम्पट बनकर मेरी उपेक्षा कर रहे हो? अरे अभागे ! तुम 'सेवाकारी' शब्दमात्र से ही सन्तोष करते हो !"
नन्दिसेन ने प्रसन्नचित्त रहकर देवरोगी से नम्रतापूर्वक निवेदन किया : “अपराध क्षमा करें। मुझे आज्ञा दें, मैं आपकी सेवा करता हूँ।" यह कहकर उसने मल से भरे रोगी के शरीर को धो दिया। और, उसे नीरोग होने का आश्वासन देकर उपाश्रय (जैनसाधुओं के आवास) में ले गया। रोगी पदे-पदे उसे कठोर बातें कहता और उसकी भर्त्सना करता, लेकिन नन्दिसेन यन्त्र की भाँति निर्विकार भाव से यत्न कर रहा था। इसके बाद देवरोगी ने उसपर अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त मल का त्याग कर दिया। फिर भी, उसने दुर्गन्ध की परवाह नहीं की, न ही उसके कठोर वचनों की कोई गिनती की। वरन्, वह रोगी को मीठी बातों से सान्त्वना देता हुआ, उसका नाज उठाता हुआ, सेवा में लगा रहा।
नन्दिसेन की सच्ची सेवा- भावना से देवरोगी प्रसन्न हो गया और उसने अपना अशुभ परिवेश समेट लिया। उसी समय घ्राण और मन को सुख देनेवाले फूलों की बरसा हुई। देव ने रोगी का प्रतिरूप छोड़कर दिव्य रूप धारण किया और नन्दिसेन की तीन बार प्रदक्षिणा करके क्षमा-याचना की। देव द्वारा वर माँगने का आग्रह करने पेर नन्दिसेन ने जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग की प्राप्ति का वर माँगा। वरदान देकर देव चला गया।
इस रूढकथा में देवों द्वारा ली जानेवाली परीक्षा में व्रतनिष्ठ व्यक्ति का सफल होना, वर प्राप्त करना, पुष्पवृष्टि होना तथा देवत्व से मनुष्यत्व की श्रेष्ठता सिद्ध होना आदि कई परम्परागत कथानक-रूढियों का विस्मयकारी विनियोग हुआ है। साथ ही, राजा हरिश्चन्द्र तथा राजा शिबि आदि की वैदिक कथाओं की रूढियों से भिन्न श्रमण-परम्परा की प्रस्तुत कथारूढि, ततोऽधिक लौकिक जन-जीवन के धरातल पर उपस्थापित हुई है।
ज्ञातव्य है कि नन्दिसेन ही, रूपसी स्त्रियों के प्रिय होने के संकल्प के साथ मरकर महाशुक्र स्वर्ग में इन्द्रकल्प देवता हुआ और वहाँ से च्युत होकर अन्धकवृष्णि के दशम पुत्र वसुदेव के रूप में उत्पन्न हुआ, जिसके चरित-चित्रण के निमित्त संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' की रचना की।
१०. अशुभ शकुन की भविष्यवाणी (श्यामा-विजया-लम्भ : पृ. ११९)
वसुदेव आठ वर्ष की उम्र में जब कलाचार्य के निकट कला की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तभी किसी रसवणिक् (द्रवपदार्थ : मधु, इत्र, तैल आदि का व्यापारी) ने उनकी सेवा में बालक कंस को सौंप दिया और वह बालक भी उनके साथ कला सीखने लगा। एक दिन जरासन्ध ने वसुदेव के बड़े भाई के पास दूत भेजकर कहलवाया कि 'सिंहपुर के राजा सिंहरथ को यदि आप बन्दी बना लेंगे, तो आपको जीवयशा नाम की पुत्री और प्रधान नगर प्रदान किया जायगा।' वसुदेव के मन में इच्छा हुई कि सिंहरथ का विजय स्वयं वही करें, इसलिए उन्होंने बड़े भाई से आग्रहपूर्वक