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वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ एक बार स्वयं कृष्ण ने ही सत्यभामा को बुरी तरह छकाया। प्रतिमा जैसी सुन्दरी रुक्मिणी को श्रीदेवी की प्रतिमा-पीठिका पर मूर्त्तिवत् निश्चल खड़ी कराके उसके प्रति सत्यभामा से, धोखे में डालकर, प्रणाम निवेदित करवाया। कृष्ण के ही छल-छा के कारण, एक बार शाम्ब ने अपनी माता जाम्बवती को सामान्य गालिन समझकर रिरंसावश उसका हाथ पकड़ लिया। फलतः जाम्बवती
और शाम्ब बुरी तरह छके ! एक बार प्रद्युम्न ने तो अपने दादा वसुदेव का रूप बदलकर अपनी दादियों को छकाया । यहाँतक कि वह अपने पिता और माता कृष्ण एवं रुक्मिणी को भी छकाने से बाज नहीं आया है । सत्यभामा के द्वारा प्रेषित नाइयों और यादववृद्धों की तो उसने दुर्दशा ही कर दी। इस प्रकार, संघदासगणी ने कृष्ण को अपने परिवार के बीच ही एक अजीब गोरखधन्धे में उलझा हुआ प्रदर्शित किया है । कहना न होगा कि संघदासगणी द्वारा चित्रित कृष्णचरित्र लोकजीवन की मनोरंजकता और रुचिवैचित्र्य की दृष्टि से अन्यत्र दुर्लभ है। यह कृष्णचरित्र कृष्ण की दैवी सबलता और मानुषी दुर्बलता के अद्भुत सामंजस्य का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत करता है।
'वसुदेवहिण्डी' के कृष्ण न तो अर्जुनमोहविनाशिनी गीता के वक्ता श्रीकृष्ण हैं, न ही पाण्डवों के सखा तथा सलाहकार महाराज कृष्ण । वह तो, डॉ. याकोबी के शब्दों में “अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए चाहे जिस किसी उपाय का अवलम्बन कर लेते थे।" इसके अतिरिक्त, वह 'गोपीवल्लभ' या 'मोपगोपीजनप्रिय' भी नहीं हैं, जिनकी बाललीला और गोपीक्रीड़ा के वर्णनों से महाभारत के साथ ही विष्णुपुराण, श्रीमद्भागवत, हरिवंश, पद्मपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण एवं ब्रह्म, वायु, अग्नि, लिंग और देवीभागवतपुराण मुखरित हैं। किन्तु, संघदासगणी के कृष्ण का व्यक्तित्व ही कुछ दूसरा है। कृष्ण के व्यक्तित्व की विभिन्नता और विचित्रता के सम्बन्ध में डॉ. विण्टरनित्ज ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि “पाण्डवों के सखा और सलाहकार, भगवद्गीता के सिद्धान्त के प्रचारक, बाल्यकाल में दैत्यों का वध करनेवाले वीर, गोपियों के वल्लभ तथा भगवान् विष्णु के अवतार श्रीकृष्ण एक ही व्यक्ति थे, इस बात पर विश्वास होना बहुत ही कठिन है। संघदासगणी ने भी कृष्ण के, वैष्णव-परम्परा में चित्रित व्यक्तित्व की विपुलता पर विश्वास न करके उन्हें एक स्वतन्त्र लोकविश्वसनीय व्यक्तित्व प्रदान किया है। कृष्ण की बाललीला का जहाँतक प्रश्न है; संघदासगणी ने भी अपने ग्रन्थ के अन्त में उसका आभास-मात्र दिया है। उन्होंने केवल इतना ही लिखा है कि कृष्ण के विनाश के लिए कंसं ने कृष्णयक्ष के अतिरिक्त, गधे, घोड़े और बैल को भेजा। वे गोकुलवासियों को पीड़ा पहुँचाने लगे। लेकिन, कृष्ण ने उनका विनाश कर दिया। हालाँकि कृष्ण ने ऐसा साहस और शौर्य तब दिखलाया है, जब वह प्राय: युवा हो गये हैं। इससे स्पष्ट है कि महाभारत या विभिन्न पुराणों या फिर जैनवाङ्मय के ग्रन्थों में वर्णित श्रीकृष्णचरित्र में, तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से न्यूनाधिक अन्तर कहीं-कहीं भले हो, परन्तु कथा का मुख्य विषय और केन्द्रीय भाव सर्वत्र एक ही है।
संघदासगणी के कृष्णचरित्र पर महाभारत के कृष्णचरित्र का प्रभाव परिलक्षित होता है। महाभारत में कृष्ण का राजनीतिज्ञ के रूप में बहुत ही सम्मानपूर्वक वर्णन किया गया है । वास्तविक
१.विशेष द्रष्टव्य : 'भारतीय वाङ्मय में श्रीराधा' : पं.बलदेव उपाध्याय,प्र.बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद्, पटना,पृ.३२ २. “परिवड्डइ वए। ततो कंसेण विणासकए कण्हं आसंकमाणेण य कसिणयक्खा आदिट्ठा पत्ता नंदगोवगोडे।
विसज्जिया खर-तुरय-वसहा । ते य जणं पीलेंति । कण्हेण य विणासिया।” (देवकीलम्भ : पृ.३६९-७०)