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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा ___'वसुदेवहिण्डी' में कृष्णचरित्र के साथ न तो धार्मिक अलौकिक भावना का सामंजस्य हो सका है, न ही कृष्ण को साधारण नायक के रूप में स्वीकारा जा सका है। ऐसी स्थिति में, 'वसुदेवहिण्डी' के कृष्ण पुरुषोत्तम युद्धवीर दक्षिणनायक' हैं । इस आदर्श-भावना के परिणामस्वरूप ही संघदासगणी ने कृष्ण के चरित्र में रूप-परिवर्तन आदि अलौकिक शक्ति की सम्भावना के साथ ही उनकी सामन्तवादी प्रवृत्ति को स्वीकृति दी और उनके व्यक्तित्व और कर्तृत्व में लोक कल्याण की भावना का भी विनियोग किया। इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी' का कृष्णकथा-प्रसंग प्राय: सभी प्रकार से औचित्य की सीमा में ही परिबद्ध है।
संघदासगणी हृदय से तीर्थंकरों या शलाकापुरुषों का भक्त होते हुए भी वैचारिक दृष्टि से समकालीन सामाजिक प्रवृत्ति और प्रगति से पूर्ण परिचित हैं। उनका कथाकार भक्ति-भावना के आवेश में कभी नहीं आता। इसीलिए, उन्होंने कृष्ण की कथा को राधा के प्रेमाश्रु के अतिरेचन से सर्वथा मुक्त रखा है। वह यथार्थवादी कथाकार हैं। वह न तो भक्ति और ज्ञान के तर्कों में उलझे हैं, न ही उन्होंने प्रेम-ग्रन्थि को सुलझाने में अपनी प्रतिभा का व्यय करना उचित समझा है। वह कभी-कभी रतिचतुर कृष्ण की कामकथा में इतने अधिक तल्लीन हो गये हैं कि उस सीमा पर उन्होंने धार्मिक भावना को भी विस्मृत कर दिया है । फलत: कृष्ण रीतिकालीन साधारण नायक हो गये हैं और उनकी मानुषी और विद्याधरी पलियाँ साधारण नायिकाएँ। इस सन्दर्भ में पुत्रप्राप्ति के लिए कृष्ण के साथ समागम-सुख को चाहनेवाली सत्यभामा और जाम्बवती की अहमहमिका या प्रतिस्पर्धा का पूरा-का-पूरा प्रसंग कृष्ण के लीला-वैचित्र्य की दृष्टि से पर्याप्त रुचिकर है। यद्यपि, 'वसुदेवहिण्डी' के कृष्ण लीलापुरुष नहीं हैं, अपितु वह सत्यभामा, रुक्मिणी और जाम्बवती-इन तीनों पत्नियों (शेष पद्मावती आदि पलियाँ गौण हैं, गिनती के लिए हैं, कृष्ण के जीवन में उनकी कोई भी विशिष्ट भूमिका नहीं है) के सपत्नीत्व की पारस्परिक ईर्ष्या और द्वेष तथा उपालम्भजनित क्रोध एवं एक-दूसरे को नीचा दिखाने की अप्रीतिकर भावनाओं की द्वन्द्विल स्थिति के सातत्य को झेलते हैं, साथ ही प्रद्युम्न (रुक्मिणी-प्रसूत), शाम्ब (जाम्बवती-प्रसूत) और भानु (सत्यभामा-प्रसूत)-इन तीनों पुत्रों के बीच पारस्परिक क्रीड़ाविनोद के क्रम में उत्पन्न अवांछित कटुता, उद्दण्डता और धृष्टता का धर्षण भी स्वयं उठाते हैं।
सबसे बड़ी चिन्ता की बात तो उनके लिए यह है कि ये तीनों पुत्र अपनी माताओं के हृदय में प्रतिक्षण प्रज्वलित सपत्नीत्व का प्रतिशोध भी परस्पर एक-दूसरे की माताओं से लेने में नहीं हिचकते । प्रद्युम्न और शाम्ब तो सत्यभामा और उसके पुत्र भानु के पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं।
और, सत्यभामा को ऊबकर कृष्ण से कहना पड़ता है कि “शाम्ब आपके दुलार के कारण मेरे बेटे को जीने नहीं देगा, इसलिए उसे मना कीजिए।... मैं तो अपने बेटों का खिलौना हो गई हूँ। अब मेरा जीना व्यर्थ है।" यह कहकर वह अपनी जीभ खींचकर आत्महत्या के लिए उद्यत हो जाती है। तब, कृष्ण उसे बड़ी कठिनाई से रोकते हैं और आश्वस्त करते हैं : “कल मैं उस अविनीत को दण्ड दूंगा, तुम विश्वास करो।"२
१. एषु त्वनेकमहिलासमरागो दक्षिणः कथितः। (साहित्यदर्पण', ३.३५) २.सुयं च सच्चभामाए,विण्णविओ कण्हो रोवंतीए–“संबो तुज्झच्चएण वल्लाभवाएण ण देइ मे दारयस्स जीविउं, : निवारिज्जउ जइ तीरइ।... अहं पुत्तंभंडाण खेल्लावणिया संवुत्ता, किं मे जीविएणं ?" ति जीहं पकड्डिया।
कहिंचि निवारिया य, भणिया ये कण्हेण-"देवि ! अविणीयस्स कल्लं काहं निग्गह, वीसत्था भवसुत्ति।" (पीठिका : पृ. १०७-८)