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________________ . वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ ९९ धर्मकथा होते हुए भी काव्यत्व की गरिमा से ओतप्रोत है। किन्तु इस महत्कथा के रचयिता आचार्य संघदासगणी भागवतकार के समान कृष्ण के चरित्र की उद्भावना की दृष्टि से नितान्त रूढिवादी नहीं हैं। संस्कृत-साहित्य के धार्मिक युग में भावों और चरित्रों या आचारगत संस्कारों में जहाँ अतिलौकिकता और रूढिजन्य परतन्त्रता परिलक्षित होती है, वहाँ प्राकृत-साहित्य का धार्मिक युग अधिकांशत: लौकिक है और चारित्रिक उद्भावना के क्षेत्र में सर्वथा रूढ़िमुक्त और सातिशय स्वतन्त्र भी है। भागवतकार के नन्द श्रीकृष्ण की परम शक्ति से विस्मित हैं और यशोदा उनके अलौकिक चरित्र से चकित । किन्तु, 'वसुदेवहिण्डी' के कृष्ण इतने अधिक पुरुषार्थी और प्रभावशाली महामानव हैं कि द्वारवती जाने के लिए समुद्र ने उन्हें रास्ता दिया था और कुबेर ने उनके लिए द्वारवती नगरी का निर्माण किया था, साथ ही रत्न की वर्षा भी की थी।' अर्थात्, कृष्ण की मानवी शक्ति के समक्ष दैवी शक्ति नतमस्तक थी । 'श्रीमद्भागवत' की तरह अतिरंजित अलौकिक पारमेश्वरी शक्ति की सर्वोपरिता के सिद्धान्त से 'वसुदेवहिण्डी' के कृष्ण आक्रान्त नहीं हैं, इसीलिए संघदासगणी कृष्ण के मानवी भावों के विकास को अधिक दूर तक दिखाने में सफल हुए हैं । ब्राह्मण-परम्परा स्वभावत: ब्रह्मवादी है, इसलिए उसमें मानवीय पुरुषार्थ की अपेक्षा ईश्वरीय शक्ति के चमत्कार या भाग्यवाद को अधिक प्राश्रय दिया गया है और श्रमण परम्परा स्वभावत: श्रम (पुरुषार्थ) - वादी है, इसलिए वह मानवी शक्ति या पुरुषार्थ की अवधारणा के प्रति अत्यधिक आस्थावान् है । अतएव, 'वसुदेवहिण्डी' के कृष्ण परात्पर परब्रह्म न होकर मानवीय जीवन और समाज की साधारण मान्यताओं के अनुयायी हैं । फलतः, कृष्ण के प्रति हम अलौकिक आतंक से ग्रस्त होने की अपेक्षा सामाजिक पुरुषार्थ की प्रेरणा से स्फूर्त हो उठते हैं । 'वसुदेवहिण्डी' के कृष्ण में दिव्य और मानुष भाव का अद्भुत समन्वय हुआ है । इसलिए, वह अवतारी या दिव्यपुरुष न होते हुए भी असाधारण कर्मशक्ति से सम्पन्न उत्तम प्रकृति के पुरुष हैं। वह अलग से ईश्वरत्व की प्राप्ति के लिए आग्रहशील नहीं हैं, अपितु उनमें स्वतः ईश्वरीय गुण विकसित हैं। वैष्णव-साधना के क्षेत्र में कृष्ण के भाव और चरित्र दोनों ही अलौकिक हैं, इसलिए वैष्णव भक्ति-काव्यों में कृष्ण महान् नायक के रूप में ब्रह्म हैं और गोपियाँ उनकी नायिकाओं के रूप में जीवात्माएँ हैं । किन्तु, श्रमण परम्परा की महार्घ कथाकृति 'वसुदेवहिण्डी' के कृष्ण केवल महान् नायक हैं और वह अपनी पत्नियों और पुत्रों एवं वृद्ध कुलकरों और मित्र राजाओं के प्रति बराबर दाक्षिण्य भाव से काम लेते हैं। वह हिंसा या युद्ध को भी व्यर्थ समझते हैं । प्रतिरक्षात्मक आक्रमण भी तभी करते हैं, जब उसके लिए उन्हें विवश होना पड़ता है। पद्मावती, लक्षणा, सुसीमा, जाम्बवती और रुक्मिणी को पत्नी के रूप में अधिगत करते समय विवशतावश ही उन्हें युद्ध और हत्या का सहारा लेना पड़ा है। अपने पुत्र शाम्ब की धृष्टता और उद्दण्डता पर खीझकर ही उन्होंने उसे निर्वासन - दण्ड दिया। इतना ही नहीं, उनका यक्षाधिष्ठित आयुधरत्न सुदर्शन चक्र भी शत्रु का ही संहार करता है, किन्तु अपने स्वामी के बन्धुओं का तो वह रक्षक है : " आउहरयणाणं एस धम्मो - 'सत्तू विवाडेयव्वो, बंधू रक्खियव्वो सामिणोत्ति ( पीठिका: पृ. ९६ ) ।” १. " समुद्देण किर से मग्गो दिण्णो, धणदेण णयरी णिम्मिया बारवती, रयणवरिसं च वुद्धं ।” (पृ. ८०)
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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