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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा पहले मुझे ही पुत्र होगा, तुम्हें नहीं।” झगड़ने के क्रम में ही सत्यभामा ने शर्त रखी : “जिसको पहले पुत्र होगा, उसके पुत्र के विवाह में दूसरी को अपने केशों से कुशकण्डिका की विधि पूरी करनी होगी।” रुक्मिणी प्रच्छन्नगर्भा थी, इसलिए सत्यभामा उसे पीड़ा देना चाहती थी। अन्त में, दोनों ने शर्त को स्वीकार कर लिया। ___इसके बाद दोनों कृष्ण के पास पहुँची और उन्होंने श्रमण के आदेश और शर्त की बात कही। कृष्ण ने कहा : “तुम दोनों को पुत्र होंगे। झगड़ना व्यर्थ है।" उसके बाद वे दोनों चली गईं।
वैष्णव-परम्परा में भगवान कृष्ण को दुर्योधन के विपक्षी पाण्डवों के पक्षधर के रूप में उपस्थित किया गया है, किन्तु श्रमणाचार्य संघदासगणी ने कृष्ण और दुर्योधन में परस्पर मैत्रीभाव रहने की चर्चा की है।
रुक्मिणी और सत्यभामा के चले जाने के बाद उत्तरापथ के राजा दुर्योधन कृष्ण की सेवा में उपस्थित हुए। कृष्ण ने सभास्थल में पधारे सभी राजाओं को देवियों के विवाद के बारे में बताया। दुर्योधन ने कहा : “जिसे पहले पुत्र होगा, समझिए, उसके पुत्र के लिए मैंने अपनी पुत्री दे दी।” इस प्रकार, हास-परिहास का आनन्द लेने के बाद यदुनाथ कृष्ण नन्दनवन से परिवार सहित द्वारवती लौट गये।
समय पूरा होने पर, रुक्मिणी ने, रात्रि में, पुत्र प्रद्युम्न को जन्म दिया। जातकर्म संस्कार के बाद शिशु को 'वासुदेव' नाम से अंकित मुद्रा बाँध दी गई। परिचारिकाओं ने कृष्ण को कुमारजन्म की सूचना दी। कृष्ण रत्नदीपिका से आलोकित मार्ग को पारकर रुक्मिणी-भवन में आये । किन्तु, कृष्ण की दृष्टि पड़ते ही कुमार को किसी देव ने चुरा लिया। रुक्मिणी पहले तो कृष्ण को देखकर मूर्छित हो गई, फिर प्रकृतिस्थ होने पर पुत्रशोक में विलाप करने लगी। कृष्ण ने सान्त्वना दी : “देवी ! विषाद मत करो। तुम्हारे पुत्र को खोजता हूँ। जिसने मेरे देखते ही, मेरा अनादर करके बालक को चुरा लिया, उस दुष्ट को मैं शिक्षा दूंगा।” यह कहकर वह (कृष्ण) अपने भवन में चले गये।
कृष्ण अपने कुलकरों (वृद्धों) के साथ सोच-विचार कर रहे थे कि उसी समय नारद वहाँ आये। कृष्ण ने नारद का स्वागत किया। नारद ने कृष्ण को चिन्तित देखा, तो वह अपनी सहज परिहासपूर्ण वचोभंगी में बोले : “कृष्ण ! आपकी तो यही चिन्ता होगी कि किस राजा की पुत्री रूपवती है; अथवा कौन जरासन्ध के पक्ष का है ?" कृष्ण ने प्रतिवाद किया : “ऐसी बात नहीं है। रुक्मिणी के सद्योजात पुत्र को किसी ने चुरा लिया है, उसी की खोज में चिन्तित हूँ।"
नारद ने हँसते हुए कहा : “अच्छा संयोग है। सत्यभामा आसन्नप्रसवा है। चारणश्रमण के आदेशानुसार निश्चय ही उसे भी पुत्र होगा। रुक्मिणी केश मुड़वाने से बच गई।” कृष्ण ने कहा : “नारदजी ! परिहास व्यर्थ है । जाइए, देवी रुक्मिणी को धीरज बँधाइए।" नारद हँसते हुए रुक्मिणी के पास गये। उसने नारद से पुत्र-समाचार ले आने का आग्रह किया। नारद करुणार्द्र होकर बोले : "रुक्मिणी ! शोक मत करो। मेरा निश्चय है, जबतक तुम्हारे पुत्र की खोज न कर लूँगा, तुम्हें देलूंगा नहीं।” इसके बाद वह आकाश में उड़ गये।
दूसरे ही क्षण नारदजी सीमन्धरस्वामी के पास थे। उन्होंने उनकी वन्दना करके रुक्मिणी के पुत्र चुरानेवाले के बारे में पूछा। सीमन्धरस्वामी ने विस्तारपूर्वक नारद से रुक्मिणी के पुत्र