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महाकवि धनञ्जय: व्यक्तित्व एवं कृतित्व
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१०५८ (११३६ ई.) के हैं । इस प्रकार दोनों को एक व्यक्ति सिद्ध नहीं किया जा सकता। ऐसा प्रतीत होता है कि श्रवणबेलगोला के अभिलेख में बसदि के त्रैविद्य रचित काव्य से सम्बन्धित पद्यों को अभिनवपम्प की रचना से भ्रमपूर्वक उद्धृत किया गया है ।
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(२) वादिराज, देव (पूज्यपाद), अकलंक, जिनसेन इत्यादि ने धनञ्जय प्रभृति पूर्वाचार्यों की प्रशंसा की है । इस तथ्य के आधार पर धनञ्जय को जैन मुनि स्वीकार करना समुचित नहीं है । राघवपाण्डवीय में उसके मुनित्व का कोई संकेत उपलब्ध नहीं होता । सामान्यत: वह अपने गुरु दशरथ का ही उल्लेख करता है, किन्तु उसे वह मुनि नहीं कहता । इससे " वह एक श्रावकमात्र था, मुनि नहीं "इस मत की पुष्टि होती है । राजशेखर (१०वीं शती का पूर्वार्ध) द्वारा उल्लेख किया गया है । इसलिए उसे ए. वेंकटसुब्बइया द्वारा मान्य ९८५ ई. जितना परवर्ती नहीं माना जा सकता ।
(३) ए. एन. उपाध्ये के निष्कर्षों से सहमत होने पर भी मिराशी पम्प द्वारा निर्दिष्ट श्रुतकीर्ति त्रैविद्य तथा कोल्हापुर स्थित रूपनारायण जैन बसदि के पुरोहित श्रुतकीर्ति त्रैविद्य में ऐक्य नहीं मानते । इस सन्दर्भ में उन्होंने निम्नलिखित तर्क दिये हैं
(क) दोनों त्रैविद्य समकालीन नहीं है । पम्प द्वारा निर्दिष्ट श्रुतकीर्ति त्रैविद्य ११०० ई. में हुआ होगा, क्योंकि पम्प रामायण का एक पद्य श्रवणबेलगोला के अभिलेख १२७ (१११५ ई.) में उद्धृत हुआ है । जबकि, रूपनारायण बसदि का श्रुतकीर्ति त्रैविद्य ११२०-११४० ई. के मध्य रहा होगा, क्योंकि कोल्हापुर अभिलेख (शक सं. १०८५-११३६ ई.) और तेर्दाळू अभिलेख (शक सं. १०४५-११२३ई.) में उसको उक्त बसदि का तत्कालीन पुरोहित माना गया है ।
(ख) दोनों श्रुतकीर्ति त्रैविद्यों की गुरु परम्पराएं भी भिन्न हैं । पम्प द्वारा निर्दिष्ट श्रुतकीर्ति की गुरु-परम्परा बालचन्द्र - मेघचन्द्र-शुभकीर्ति (वासुपूज्य)- श्रुतकीर्ति थी, जबकि रूपनारायण बसदि के श्रुतकीर्ति की गुरु-परम्परा कुलभूषण - कुलचन्द्रमाघनन्दी श्रुतकीर्ति थी । इसलिए दोनों को एक श्रुतकीर्ति स्वीकार नहीं किया जा
सकता ।
(ग) कोल्हापुर का श्रुतकीर्ति त्रैविद्य अपने समय में सुप्रसिद्ध था, परन्तु तत्कालीन अभिलेखों में राघवपाण्डवीय का निर्देश नहीं है । यदि उसने राघवपाण्डवीय नामक काव्य की रचना की होती, तो निश्चित रूप से उसका उल्लेख