________________
सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना उसकी प्रशस्तियों में होता। किन्तु न तो तत्कालीन अभिलेखों में, न ही कोल्हापुर
और निकटस्थ प्रदेशों के परवर्ती अभिलेखों में इस प्रकार के किसी काव्य के प्रति उसके कर्तृत्व का संदर्भ प्राप्त होता है । इस प्रकार भी दोनों श्रुतकीर्ति भिन्न ही सिद्ध होते हैं। (५) डॉ. वी.वी. मिराशी का मत (लगभग ८०० ई.)
वी.वी. मिराशी पम्प द्वारा निर्दिष्ट श्रुतकीर्ति त्रैविद्य तथा कोल्हापुर जैन बसदि के मुनि श्रुतकीर्ति विद्य को भिन्न मानकर धनञ्जय का काल लगभग ८०० ई. स्वीकार करते हैं। अपनी मान्यता के समर्थन में उन्होंने निम्नलिखित तथ्य दिये
___(१) कन्नड़ कवि दुर्गसिंह (१०२५ ई) ने अपने पंचतंत्र में कहा है कि धनञ्जय राघवपाण्डवीय से सरस्वती के स्वामी बन गये। दुर्गसिंह परवर्ती चालुक्य राजा जयसिंह द्वितीय (जगदेकमल्ल प्रथम) १०१५-१०४२ ई. के समकालीन थे । अत: - धनञ्जय १००० ई. पूर्व निश्चितरूपेण प्रख्यात रहे होंगे।
(२) वादिराज के पार्श्वनाथचरित में धनञ्जय से सम्बद्ध निम्नलिखित पद्य प्रयुक्त है
अनेकभेदसन्धानाः खनन्तो हदये मुहुः । बाणा धनञ्जयोन्मुक्ताः कर्णस्येव प्रिया: कथम् ।।२
वादिराज ने पार्श्वनाथचरित शक सं. ९४७, कार्तिक सुदी ३ (२७ अक्टूबर, १०२६ ई) को संकलित किया था। अत: धनञ्जय वादिराज से अर्थात् १००० ई. से पूर्व प्रख्यात रहा होगा।
(३) धारानरेश भोज ने अपने शृङ्गारप्रकाश में कुछ स्थानों पर धनञ्जय के द्विसन्धान-काव्य का उल्लेख किया है । एक उद्धरण इस प्रकार है
तृतीयस्य (द्विसन्धानप्रकारस्य) उदाहरणं यथा दण्डिनो धनञ्जयस्य वा द्विसन्धान-प्रबन्धौ रामायणभारतावनुबधीत: ।३ १. कन्नड़ पञ्चतंत्र,मैसूर,१८९८,८ २. पार्श्वनाथचरित,१:२६ ३. शृङ्गारप्रकाश,मद्रास,१९६३,पृ.४०६