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सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना (७) कन्नड़ पंचतंत्र का कर्ता दुर्गसिंह (१०२५ ई.) धनञ्जय के राघवपाण्डवीय का उल्लेख करता है। डॉ. कुलकर्णी (धारवाड़) के अनुसार आरा स्थित प्रति मे पूर्ववर्ती कवियों का निर्देश करने वाले पद्य नहीं है।
(८) छन्दों की एक कन्नड़ कृति छन्दोम्बुधि में धनञ्जय का पूर्ववर्ती कवियों के साथ उल्लेख है ।२ नरसिंहाचारियर के अनुसार उक्त धनञ्जय द्विसन्धान-महाकाव्य का कर्ता है, किन्तु ए. वेंकटसुब्बइया के मत में यह दशरूपककार धनञ्जय है। . (९) जल्हण (१२५७ई.)अपनी सूक्तिमुक्तावली में धनञ्जय से सम्बद्ध एक पद्य को राजशेखर (९००ई.) का बताता है । उक्त पद्य में कर्ता के नाम को धन
और जय में उसी प्रकार विभक्त किया गया है, जिस प्रकार धनञ्जय ने द्विसन्धान-महाकाव्य में किया है।
(१०) वीरसेन ने धवला मे इति शब्द की व्याख्या करने के लिए एक पद्य का उल्लेख किया है, वह धनञ्जयनाममाला के पद्य ३९ से मिलता-जुलता है ।
उपर्युक्त सभी तथ्यों के आधार पर धनञ्जय का काल अकलंक (७-८ वीं . शती) तथा वीरसेन (जिसने धवला ८१६ ई. में सम्पन्न की) के मध्य लगभग ८०० ई. सिद्ध होता है। डॉ. वी.वी. मिराशी द्वारा पूर्व मतों की समीक्षा
(१) अभिनवपम्प कृत रामचरितपुराण में निर्दिष्ट श्रुतकीर्ति विद्य और धनञ्जय में ऐक्य स्थापित कर पाठक का धनञ्जय को ११२५ ई. में स्वीकार करना वी.वी. मिराशी के मत में युक्तियुक्त नहीं है । मिराशी का मत है कि पम्प द्वारा निर्दिष्ट श्रुतकीर्ति विद्य तथा कोल्हापुर जैन बसदि के पुरोहित श्रुतकीर्ति विद्य में ऐक्य स्थापित नहीं किया जा सकता, क्योंकि दोनों की गुरु परम्पराएं भिन्न थीं। पम्प द्वारा निर्दिष्ट श्रुतकीर्तित्रैविद्य ११०० ई. में प्रसिद्ध हुआ। दूसरी ओर कोल्हापुर के श्रुतकीर्ति त्रैविद्य के समसामयिक अभिलेख शक सं. १०४५ (११२३ ई.) और १. कन्नड़ पञ्चतन्त्र,मैसूर,१८९८,८,
२. छन्दोम्बुधि,कर्णाटक कविचरित में उद्धृत,पृ.५३ __३. सूक्तिमुक्तावली,गायकवाड आरिएन्टल सिरीज़,बड़ौदा,१९३८,पृ.४६
४. षट्खण्डागम, धवला टीका सहित, भाग १,अमरावती,१९३८,प्रस्तावना, पृ.३८