________________
१२६
सन्धान-कवि धनञ्जय की काव्य-चेतना
स्पदि न तदवेयुषी वधूरधिदयितायतबाहु विप्लुता। रमणसलिलयो: किमीयत: पुलकितमङ्गमिति प्रसङ्गतः ।।।
यहाँ प्रेमी जलकेलि के प्रसङ्ग में प्रेमिका को अपनी आजानु लम्बी भुजाओं पर पानी में तैरा देता है । इससे प्रेमिका को रोमाञ्च हो जाता है और वह इस रोमाञ्च का कारण नहीं समझ पाती कि यह पति स्पर्श से हुआ है या जलक्रीडा से । स्थायी भावरति है । आलम्बन विभाव प्रेमिका तथा आश्रय प्रेमी है । नदी की शोभा,प्रेमिका का मुग्धा रूप तथा प्रेमी की भुजाएं उद्दीपन विभाव हैं । नेत्र-निमीलन, मुस्कुराहट आदि अनुभाव आक्षिप्त हैं । स्तम्भ, रोमाञ्च आदि सात्विक भावों के द्वारा शृङ्गार रस की अभिव्यक्ति हुई है। वस्त्राहरण
व्रीडावास: स्वान्तमङ्गं समस्तं कामार्त्तानां प्राप शैथिल्यमेका। स्वप्नेऽप्यासीन्नश्लथा बाहुपीडा युक्तं द्राधीयस्सु मूर्खत्वमाहुः ।।२
प्रस्तुत प्रसंग में प्रेमी व प्रेमिका के सम्भोग का वर्णन है । दोनों काम से आतुर होकर न केवल लज्जा ही छोड़ बैठे हैं, अपितु उन्होंने वस्त्र भी उतार दिये हैं । काम-भोग से अंग शिथिल हो गये हैं । थक कर सो जाने पर भी उनके भुजापाश ढीले नहीं हुए हैं। यहाँ रति स्थायी भाव है। परस्पर प्रेमी व प्रेमिका आलम्बन विभाव हैं । कामातुरता उद्दीपन विभाव है । भुजपाश का ढीला न होना आदि उन्माद व्यभिचारी भाव हैं । वस्त्राहरण, शरीरों की क्लान्तता आदि अनुभाव हैं जिनसे पूर्ण शृङ्गार की अभिव्यक्ति हो रही है।
चुम्बन
आलिङ्ग्य गाढं मधुरं ध्वनन्ती मुखे मुखं न्यस्य वधूः प्रियस्य । विस्मृत्य कर्णान्तरमुन्मदत्वा दास्ये जपन्तीव बभौ रहस्यम्॥ किमु मधुरसितां मुखातिप्रयां प्रशमयितुं रसमुत्पिबन्निव ।
अविरतिरुतनिसनच्छलादजनि जन: सकलां गिलन्निव ॥ १. द्विस., १५.४३ २. वही,१७.७४ ३. वही,१७६४-६५