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रस-परिपाक
१२७ प्रस्तुत उद्धरण में कामकेलिमग्न प्रिययुगल का चुम्बन-वर्णन है । प्रिया ने आनन्द के अतिरेक में प्रिय को आलिङ्गन कर उसका चुम्बन कर लिया है। चुम्बन करते समय वह गुनगुनाती हुई सी ऐसी लग रही है, जैसे प्रियमुख को उसका कान समझकर उसमें कुछ गुप्त बात कह रही हो । इस प्रकार से मद्यपान के उपरान्त रतिकेलि में मस्त प्रिया को शान्त करने के लिये प्रेमी मुख में मुख डालकर उसका चुम्बन कर रहा है । इस समय रति रस को पीता हुआ वह ऐसा लग रहा है जैसे पूरी की पूरी प्रियतमा को ही निगले जा रहा हो । प्रेमी की इसी प्रतिक्रिया से रति सुख में लीन प्रेमिका की मधुर गुनगुनाहट और चुम्बन भी शान्त हो गये।
यहाँ रति स्थायी भाव है। प्रेमी और उसकी प्रेमिका परस्पर आलम्बन विभाव हैं। मद्यपान आदि उद्दीपन विभाव हैं। हर्ष, उन्माद, चपलता, औत्सुक्य
आदि व्यभिचारी भाव हैं। आलिङ्गन तथा चुम्बनों का आदान-प्रदान अनुभाव हैं। रोमाञ्च, स्वेदादि सात्विक भाव आक्षिप्त हैं ।इनके सहयोग से सम्भोग शृङ्गार अभिव्यञ्जित हो रहा है।
एक अन्य प्रसङ्ग में कवि धनञ्जय प्रेम-कोप के अश्रुजल से भीगे हुए ओष्ठों के चुम्बन से मिलने वाली तृप्ति की मधुपान से तुलना करते हैं
कोपाश्रुभि: कालवणैः परीत: स्याद्वा स लावण्यमय: प्रियोष्ठः । कुतोऽन्यथा तं पिबतामुदन्या माधुर्यवत्प्रत्युत हन्ति तृष्णाम् ।।
प्रस्तुत उद्धरण में कवि कल्पना करता है कि अत्यल्प नमकीन प्रेम-कोप के अश्रुजल से भीगा प्रेमिका का ओष्ठ हल्का नमकीन हो जाने से अत्यन्त सुस्वादु हो गया। ऐसा होने से प्रेमियों की (काम) पिपासा उसी प्रकार शान्त हो गयी, जैसे मधुपान से होती है । यहाँ रति स्थायी भाव है । प्रेमिका आलम्बन विभाव है और प्रेमी आश्रय है । ओष्ठ उद्दीपन विभाव हैं । हर्ष, उन्माद, औत्सुक्य आदि व्यभिचारी भाव हैं। चुम्बन अनुभाव है । रोमाञ्च आदि सात्विक भाव हैं जिनसे सम्भोग शृङ्गार प्रतिस्फुटित हो रहा है। आलिङ्गन
परिपीडितमुक्तमङ्गनाया: परिरम्भेषु चिरादिव प्रियेण।
हृदयोच्छ्वसितोष्मणा सहैव प्रतिसर्पत्कुचयुग्ममुन्ममज्ज ॥२ १. वही,१७.६८