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. श्रीनन्दीसूत्र 1]
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कालो, भावओ, । तत्थ दव्वओ गं सुयनाणी उवउत्ते सव्वदव्वाई जाइ पास खित्तओ गं सुयनाणी उवउत्ते सब्बं खेत्तं जाणइ पासइ, खित्तओ गं सुयनाणी उवउत्ते सव्वं कालं जाणइ पासइ, भावओ गं सुयनाणी उवउते सव्वे भावे जाणइ पासइ ॥ सू० ५८ ॥
अक्खर सन्नी सम्मं, साइयं खलु सपज्जवसियं च । गमियं अंगपविहूं, सत्तवि एए सपडिवक्खा ॥ ३६ ॥ आगमसत्थग्गहणं, जं बुद्धिगुणेहिं अहिं दिहूं । बिसि सुयनालंभं तं पुब्वबिसारया धीरा ॥ ४० ॥ सुस्सर पडिपुच्छर सुणेइ गिराहर य ईहए यावि । तत्तो अपोह वा धारेइ करेइ वा सम्मं ॥ ३१ ॥ मूंअं हुंकारं वा, वाढक्कारं पडिपुच्छवीमंसा | तत्तोपसंगपारायणं च परिणिट्टु सत्तमए ॥ ४२ ॥ सुत्तत्थो खलु पढभो, बीनो निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ । तो य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगे ॥ ४३ ॥ से अंगपविट्ठ, सेतं सुयनाणं, से तं परोक्खनाणं, से तं नंदी || नंदी समत्ता ॥