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________________ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र] .. [१६६ सव्वं तओ जाणइ पासए य, अमोहणे होइ निरन्तराए । प्रणासवे झाणसमाहिजुत्ते, आउक्खए मोक्खमुवेइ सुद्धे ॥१०९॥ सोतस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को, जं वाहई सययं जन्तुमेयं । दीहामयं विप्पमुक्को पसत्थो, तो होइ अञ्चन्तसुही कयत्थो॥११०।। अणाइकालप्पभवस्स एसो, सव्वस्त दुक्खस्स पमोक्खमग्गो। वियाहिओ जं समुविच्च सत्ता, कमेण अञ्चन्तसुही भवन्ति ॥१११॥ त्ति बेमि ॥ पमायट्टाणं समत्तं ॥३२॥ ॥ अह कम्मप्पयडी णाम तेत्तीसइमं अज्झयणं ॥ अटुं कम्माई वोच्छामि, आणुपुचि ज हक्कम । जेहिं बद्धो अयं जीवो, संसारे परिवइ ॥१॥ नाणस्सावरणिज्जं, सणावरणं तहा।.. वेयणिजं तहा मोहं, अाउकम्मं तहेव य ॥२॥ नामकम्मं च गोयं च, अन्तरायं तहेव य । एवमेयाइ कम्माइं, अट्टेव उ समासओ ॥३॥ नाणावरणं पञ्चविहं, सुयं आभिणिबोहियं । ओहिनाणं च तइयं, मगनाणं च केवलं ॥४॥ निद्दा तहेव पयला, निहानिद्दा पयलपयला य । तत्तो य थीणगिद्धी उ.पंचना होइनायव्वा ॥५॥ १. परिवत्तए।
SR No.022602
Book TitleJivan Shreyaskar Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKesharben Amrutlal Zaveri
PublisherKesharben Amrutlal Zaveri
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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