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श्रीउत्तराध्ययन सूत्र ]
मोसस्स पच्छाय पुरत्थश्रो य, पोगकाले य दुही दुरन्ते ।
एवं श्रदत्ताणि समाययन्तो, भावे तित्तो दुहि भावाणुरत्तस्स नरम्स एवं,
कत्तो सुहं होज कयाइ किंचि ? तत्थ भोगे वि किलेस दुक्खं,
निव्वतई जस्स कपण दुक्खं ॥ ६७ ॥ एमेव भावम्मि गो पत्रसं, ras पट्टचित्तो य चिणाइ कम्मं,
दुक्खाह परंपराओ ।
जं से पुणो होइ दुहं विवागे ||१८||
भावे विरतो मरणुओ विलोगो,
एरण
दुक्खोहपरंपरेण ।
अणिस्सो || ६ ||
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न लिप्पई भवमज्हतो,
जसे वा पोक्खरिणः पलासं ॥ ६६॥ एविन्दियत्थाय मरणस्स अस्था,
दुक्खरस हेउं मणुयस्स रागिणो । ते व थोवं पि कयाद दुक्खं,
न वीयर गस्स करेन्ति किंचि ।। १०० ।।
न कामभोगा समयं उयोति,
न यावि भोगा विगईं उवेन्ति । जेतप्पओसी य परिग्गही य,
कोहं च माणं च तहेव माय,
सो तेसु मोहा विगई उवे ॥ १०१ ॥
लोहं दुर्गुच्छं अरई रई च ।