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________________ श्रीउत्तराध्ययन सूत्र ] मोसस्स पच्छा य पुरत्थो य, पयोगकाले य दुही दुरन्ते । एवं श्रदत्ताणि समाययन्तो, रूवे अतित्तो दुहि रूवाणुरत्तस्स नरस्त एवं, अणिस्सो ||२१|| कत्तो सुहं होज कयाइ किश्चि । तत्थोवभोगे वि किलेस दुक्खं, निव्वत्तई जस्स करण दुषखं ||३२|| पमेव रूवम्मि गश्रो पत्रसं, उar दुक्खोहपरंपराश्रो । पट्ठचित्तोय चिणाइ कम्मं, जं से पुणे। होइ दुहं विवागे ||३३|| रूवे विरतो मणुओ विसोगा, । एएण दुक्खोहपरंपरे न लिप्पर भवमज्झे वि सन्तो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ||३४|| सोयस्स सई गहणं वयन्ति, तं रागहेउं तु मरणुन्नमाहु | तं दो सहेउं अमणुन्नमाहु, सद्दस्स सायं गहणं वयन्ति, [ १५७ समोय जो तेसु स वीयरागो ||३५|| सोयरस सद्दं गहणं वयन्ति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, . सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिब्वं, दोस्स हेउं अमरणुन्नमाहु ||३६|| अकालियं पावर से विणासं ।
SR No.022602
Book TitleJivan Shreyaskar Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKesharben Amrutlal Zaveri
PublisherKesharben Amrutlal Zaveri
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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