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[जीवन-श्रेयस्कर- पाठमाला.
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रागाउरे से जह वा पयंगे;
आलोयलोले समुवेह मच्चुं ॥२४॥ जे यावि दोसं समुवेइ तिव्वं,
तसि क्खणे से उ उवेइ दुक्खं । दुद्दन्तदोसेण सएण जन्तू,
न किञ्चि रूवं अवरज्झइ से ॥२५।। एगन्तरत्ते रुहरंसि रूवे,
अतालिसे से कुणई पत्रोसं। दुक्खस्स सम्पीलमुवेइ बाले,
न लिप्पई तेण मुणी विरागो ॥२६॥ रूवाणुगासाणुगए य जीवे,
चराचरे हिंसह ऽणेगरूवे । चित्तेहि ते परितावेइ बाले,
पीलेइ अत्तगुरू किलिट्टे ॥२७॥ रूवाणुवाएण परिग्गहेण,
उप्पायणे रक्खणसन्निोगे। वए विओगे य कहं सुहं से,
सम्भोगकाले य अतित्तलामे ? ॥२८॥ रूवे अतित्ते य परिग्गहम्मि,
सत्तोवसत्तो न उवेइ तुढेि । अतुट्टिदोसेण दुही परस्स,
लोभावित प्राययई अदत्तं ॥२९॥ तरहाभिभूयस्स अदत्तहारिणो,
. रूवे अतित्तस्स परिग्गहे य । मायामुसं वड्डइ लोभदोसा,
तस्थावि दुक्खा न विमुच्चई से ॥३०॥