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________________ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र] [१५५ एए य संगे समइक्कमित्ता, सुहुत्तरा चेव भवन्ति सेसा। जहा महासागरमुत्तरित्ता, नई भवे अवि गङ्गासमाणा ॥१८॥ कामारणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं, सव्वस्स लोगस्स सदेवगस्स। जं काइयं माणसियं च किंचि, तस्सन्तगं गच्छइ वीयरागो ॥१९॥ जहा य किम्यागफला मणोरमा, रोण वराणेण य भुजमाणा । ते खुइए जीविए पश्चमाखा, . एओवमा कामगुणा विवागे ॥२०॥ जे इंदियारणं विसया मणुन्ना, न तेसु भावं निसिरे कयाह । न यामणुनेसु मणं पि कुजा, समाहिकामे समणे तवस्सी ॥२१॥ चक्षुस्स रूवं गहणं वयन्ति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समोय जो तेसु स वीयरागो ॥२२॥ रूवस्स चक्खं गहणं वयन्ति, ___ चक्खुस्स रूवं गहणं वयन्ति। रागस्स हेउं समणुनमाहु, दोसस्स हेउं अमणुनमाहु ॥२३॥ रवेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से घिणासं।
SR No.022602
Book TitleJivan Shreyaskar Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKesharben Amrutlal Zaveri
PublisherKesharben Amrutlal Zaveri
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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