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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र ]
तहियाणां तु भावाणं, सब्भावे उवएसणं । भावेगां सद्दहन्तस्स, सम्मत्तं तं वियाहियं ॥१५॥ निसग्गुवएसरुई, आणरुई सुत्तबीयरुइमेव । अभिगमवित्थाररुई, किरिया-संखेव-धम्मरुई ॥१६॥ भूयत्थेणाहिगया, जीवाजीवा य पुराणपावं च । सहसम्मइयासवसंवरो य रोएइ उ निस्सग्गो ॥१७॥ जो जिणदिटे भावे, चउबिहे सद्दहाइ सयमेव । एमेव नन्नह त्ति य, स निसग्गरुइ त्ति मायव्वो ॥१८।। एए चेव उ भावे, उवइट्टे जो परेण सद्दहइ । छ उमत्येण जिणेण व, उवएसरुइ ति नायवो ॥१९।। रागो दोसो मोहो, अन्ना जस्स अवगयं होइ । प्राणाए रोयंतो, सो खलु प्राणारुई नामं ॥२०॥ जो सुत्तमहिजन्तो सुपण प्रोगाहइ उ सम्मत्तं । अंगेण बाहिरेण वा, सो सुत्तरुइ त्ति नायव्वो ॥२१|| एगेण अणेगाइ, पयाइ जो पसरइ उ सम्मत्ते । उदएव्य तेल्लबिन्दू , सो बीयरुइ त्ति नायव्वा ।।२२।। सो होइ अभिगमरुई, सुयनारा जेण अत्थओ दिटुं । एकारल अंगाई, पइराणगं दिट्ठिवाअो य ।।२३।। दव्वाण सव्वभावा, सव्वपमाणेहि जस्स उवलद्धा । सव्वाहि नयविहीहिं य, वित्थाररुइ त्ति नायव्वो ॥२४॥ दसणनाणचरित्ते, तवविणए सब्वस मिइगुत्तीसु । जो किरियाभावई, सो खलु किरियारुई नाम ॥२५॥ अणभिग्गहियकुदिट्ठी, संखेवरुइ त्ति होइ नायव्वो। अविसारओ पवयणे, अणभिग्गहिरो य सेसेसु ॥२६।। जो अत्थिकायधम्म, सुयधम्म खलु चरित्तधम्मं च । सद्दहइ जिणाभिहिय, सो धम्मरुइ त्ति नायव्वो ॥२७॥
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