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श्री उत्तराध्ययन सूत्र ]
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खलुंका जारिसा जोज्जा, दुस्सीसा वि हु तारिसा । जोइया धम्मजा स्म्मि, भजंति धिइदुब्बला ||८|| इड्ढीगारविए एगे, एगेऽत्थ रसगारवे । सायागार विए एगे, पगे सुचिर कोहणे ॥६॥ भिक्खालसिए एगे, एगे ओमाणभीरुए थद्धे एगं श्रणुसासम्मि, हेऊहिं कारणेहि य ॥१०॥ सो वि अन्तरभा सिल्लो, दोसमेव पकुत्र्वइ । आयरियाणं तु वयणं, पडिकुलेइऽभिक्ख ||११|| न सा ममं वियागाइ, न य सा मज्झ दाहिइ । निग्गया होहिइ मन्ने, साहू अन्नोत्थ वश्व ||१२|| पेसिया पलिउंचन्ति, ते परियन्ति समन्तग्रो । रायविट्ठि च मन्नन्ता, करेन्ति भिउडिं मुहे ||१३|| वाइया संगहिया चेव, भत्तपाणेहि पोसिया । जायपक्खा जहा हंसा, पक्कमंति दिसो दिसिं ॥१४ अह सारही विचिन्तेइ, खलुंकेहिं समागओ । किं मज्झ दुसीसेहिं, अप्पा मे अवसीयइ ||१५|| जारिसा मम सीसाओ, तारिसा गलिगद्दहा । गलिगद्द हे जहित्ताणं, दढं पगिरहद्द तवं ||१६|| मिउमद्दवसंपन्नो, गम्भीरो सुसमाहिओ । विहरइ महिं महपा, सील भूएग अप्पणा ||१७||
॥ खलं किज्जं समत्त ॥ २७॥
॥ अह मोक्खमग्गगई गामं अट्ठावीसइमं अभयणं ॥
मोक्खमग्गगइं तच्च, सुरोह जिराभासियं । चउकारण संजुत्तं, नागदंसणलक्खां ॥१॥