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श्री उत्तराध्ययन सूत्र ]
एसो वि धम्मो विसओववन्नो,
हाइ वेयाल इवाविवन्नो ॥४४॥ जे लक्खणं सुविण पउंजमाणे,
निमित्त कोऊहलसंगगाढे । कुहेड विजासवदारजीवी,
न गच्छई सरणं तम्मि काले ||४५ || तमंतमेणेत्र उ से असीले,
सया दुही विपरियासुवेइ । संधावई नरगतिरिक्खजोणिं
मोरां विराहित्तु असाहुरूवे ||४६|| उद्देसियं कीयगडं नियागं,
न मुंबई किंचि णेस णिजं अग्गी विवा सव्यभक्खी भवित्ता,
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इत्तो चुए गच्छइ कट्टु पावें ||४७|| न तं श्ररी कंठछेत्ता करेइ,
जं से करे अप्पणिया दुरपया । से नाहि मच्चुमुहं तु पत्ते,
पच्छाभितावेण दयाविण ॥४८॥
निरट्टिया नग्गरुई उ तस्स,
जे उत्तमट्ठे विवज्जासमेइ । इमे वि से नत्थि परे वि लोए,
दुहि वि से भिज्जइ तत्थ लोप ॥ ४६ ॥ हा छन्दकुसीलरूवे,
एमेव
भग्गं विराहेतु जिरणुत्तमाणं । कुररी विद्या भोगरसाणुगिद्धा,
निरसोया परियासमेइ
॥५०॥