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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र]
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जं भिक्खुणो सीलगुणोववेया,
इहं जयंते समणो मिजाओ ॥१२॥ उञ्चोयए महु कके य बम्भे,
पवेइया पावसहा य रम्मा। इमं गिहं चित्तधणप्पभूयं,
पसाहि पंचालगुणोववेयं ॥१३॥ नहेहि गीएहि य वाइए हिं,
नारीजणाहिं परिवारयन्तो । भुंजाहि भोगाइ इमाइ भिखू !
मम रोयई पव्वजा हुदुक्खं ॥१४॥ तं पुवनेहेण कयाणुराग,
नराहिवं कामगुणेसु गिर्छ । धम्मस्सिो तस्स हियाणुपेही,
चित्तो इमं वयणमुदाहरित्था ॥१॥ सव्वं विलवियं गीयं,
सव्वं नर्से विडम्बियं । सव्वे आभरणा भारा,
सव्वे कामा दुहावहा ॥१६॥ बालाभिरामेसु दुहावहेसु,
न तं सुहं कामगुणेमु रायं ! विरत्तकामाण तवोधणारा,
ज भिक्खु सीलगुणे रयारणं ॥१७॥ नरिंद ! जाई अहमा नराणं,
सोवागजाई दुहो गया। जहिं वयं सव्वजणस्स वेस्सा,
वसीय सोवागनिवेसणेसु ॥१८॥