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श्रीउत्तराध्ययनसूत्र ]
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मणगुत्तो, वयगुत्तो, कायगुत्तो जिइन्दिो । भिक्खट्ठा बम्भइजम्मि, जन्नवाडमुवट्टिो ॥३॥ तं पासिऊरणं एजन्तं, तवेण परिसोसियं । पन्तोवहिउवगरणं, उवहसन्ति प्रणारिया ॥४॥ जाइमयपडिथद्धा, हिंसगा अजिइन्दिया । अबम्भचारिणो बाला, इमं वयणमब्बवी ।।५।। कयरे आगछइ दित्तरूवे ?
काले विगराले फोकनासे । ओमचेलए पंसुपिसायभूए,
संकरसं परिहरिय कण्ठे ॥६॥ कयरे तुम इय अदंसणिज्जे ?
काए व पालाइहमागप्रोसि ? ओमचेलया पंसुपिसाभूया,
गच्छ क्खलाहि किमिहं ठिओ सि ॥७॥ जक्खे तहिं तिन्दुयरुक्खवासी,
अणुकम्पो तस्स महामुणिस्स। पच्छायइत्ता नियगं सरीरं ,
. इमाइं वयणाइमुदाहरित्था ॥८॥ समणो अहं संजो, बम्भयारी,
विरो धणपयणपरिग्गहाओ। पर पवित्तस्स उ भिवावकाले,
अन्नस्स अट्ठा इहमागप्रोमि ॥९॥ वियरिजइ खज्जइ भुजइ य,
अन्नं पभूयं भवयाणमेयं । • जाणाहि मे जायणजीचिणु त्ति,
. सेसावसेसं लहउ तवस्ती ॥१०॥