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________________ श्रीउत्तराध्ययनसूत्र ] [५७ मणगुत्तो, वयगुत्तो, कायगुत्तो जिइन्दिो । भिक्खट्ठा बम्भइजम्मि, जन्नवाडमुवट्टिो ॥३॥ तं पासिऊरणं एजन्तं, तवेण परिसोसियं । पन्तोवहिउवगरणं, उवहसन्ति प्रणारिया ॥४॥ जाइमयपडिथद्धा, हिंसगा अजिइन्दिया । अबम्भचारिणो बाला, इमं वयणमब्बवी ।।५।। कयरे आगछइ दित्तरूवे ? काले विगराले फोकनासे । ओमचेलए पंसुपिसायभूए, संकरसं परिहरिय कण्ठे ॥६॥ कयरे तुम इय अदंसणिज्जे ? काए व पालाइहमागप्रोसि ? ओमचेलया पंसुपिसाभूया, गच्छ क्खलाहि किमिहं ठिओ सि ॥७॥ जक्खे तहिं तिन्दुयरुक्खवासी, अणुकम्पो तस्स महामुणिस्स। पच्छायइत्ता नियगं सरीरं , . इमाइं वयणाइमुदाहरित्था ॥८॥ समणो अहं संजो, बम्भयारी, विरो धणपयणपरिग्गहाओ। पर पवित्तस्स उ भिवावकाले, अन्नस्स अट्ठा इहमागप्रोमि ॥९॥ वियरिजइ खज्जइ भुजइ य, अन्नं पभूयं भवयाणमेयं । • जाणाहि मे जायणजीचिणु त्ति, . सेसावसेसं लहउ तवस्ती ॥१०॥
SR No.022602
Book TitleJivan Shreyaskar Pathmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKesharben Amrutlal Zaveri
PublisherKesharben Amrutlal Zaveri
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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