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उत्तराध्ययन सूत्र. ananenarendramernamanchar
आयामगं चेव जवोदणं च, सीयं सोवीरं जवोदगं च । ण हीलए पिण्डं नीरसं तु, पन्तकुलाई परिव्वए स भिखू ॥१३॥ सदा विविहा भवन्ति लोए, दिव्वा माणुस्सया तहा तिरिच्छा । भीमा भयभेर वा उदारा, जो सोचा ण विहिजई स भिक्खू ॥१४॥ वादं विविहं समिञ्च लोए, सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा । पण्णे अभिभूय सव्वदंसी, उवसन्ते अवहेडए स भिक्खू ॥१५॥ असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइन्दिए सब्बओ विष्पमुक्त । अणुक्कसाई लहू अप्पभक्खी, चिच्चा गिह एगचरे स भिक्खु ॥१६॥
त्ति बेमि ॥
॥१५॥ पन्नरसमं सभिक्खुअज्झयणं सम्मत्तं ॥
आयामकं चैव यवोदनं च शीतं सौवीरं यवोदकं च । नो हीलयेत्पिण्ड नीरसं तु प्रान्तकुलानि परिव्रजेत्स भिक्षुः ॥१३॥ शब्दा विविधा भवन्ति लोके दिव्या मानुष्ट कास्तथा तैरवाः । भीमा भयभैरवा उराला यः श्रुत्वा न विति स भिक्षुः ॥१४।। वाइ विविध समेत्य लोके सहितः खेदानुगतश्च कोविदात्मा। प्राज्ञो भिभूय सर्वदयुपशान्तोऽविहेठकरस भिक्षुः ॥१५॥ अशिल्पजीव्यगृहोऽमित्रो जितेन्द्रियस्सर्वतो विनमुक्तः । अणुकषायी लघ्वल्पभक्षी त्यक्त्वा गृहमेकचरम्स भिक्षुः ॥१६॥ इति ब्रवीमि ।।