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दूसरों के निमित्त से हो रहे एवं पूर्व में किये गये सावध कार्यों के विषय में मुनि सावद्य वचन
न बोलें । ४० ।
सुकडित्ति सुनिट्ठिए
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सुपक्कित्ति, सुपक्कित्ति, सुच्छिले सुलट्ठित्ति, सावज्जं
वज्जए
सभा भवन अच्छा बनाया या भोजन आदि अच्छा बनाया, सहस्रपाक तेल आदि या घेवर आदि अच्छा पकाया, वन, जंगल, पत्रशाक आदि अच्छा छेदा है, शाक की तिक्तता अच्छी है, लोभी का धन हरण हुआ, अच्छा हुआ यह शत्रु मर गया, या यह अच्छा हुआ दाल या सत्तु में घी आदि मिलाया अभिमानी का धन नष्ट हुआ यह अच्छा हुआ, यह कन्या अत्यंत सुंदर है या चावल आदि अच्छे हैं। ऐसे सावद्य वचन साधु न बोलें । ४१ ।
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सुहडें
पयत पक्के (क्क) त्ति व पक्कमालवे, पयत्तछिन्न विछिन्नमालवे । पयत्तलट्ठि (ट्ठ) त्ति व कम्महेउअं पहार गाढ त्ति व गाढमालवे ॥ ४२ ॥ प्रयोजनवश कहना हो तो, सुपक्व को प्रयत्न पूर्वक पका हुआ, सुछिन्न को प्रयत्न पूर्वक छेदा हुआ, सुंदर कन्या को दीक्षा देने में आवे तो प्रयत्न पूर्वक पालन करना पड़े, सर्व कृतादि क्रिया कर्म तुक है, गाढ प्रहार युक्त व्यक्ति को देखकर इसे गाढ प्रहार लगा है इस प्रकार यतना युक्त साधु बोले जिससे अप्रीति आदि दोष उत्पन्न न हो । ४२ ।
सवुक्कसं परग्धंवा, अविक्कि अमवत्तळं,
मडे ।
मुणी ॥। ४१ ।।
अउलं नत्थ अविअत्तं चेव नो
एरिसं । वए ॥ ४३ ॥
क्रय विक्रय आदि व्यवहारिक कार्य में कोई पूछे तो या बिना पूछे, यह पदार्थ सर्वोत्कृष्ट है. निसर्गत: सुंदर है, महामूल्यवान है, इसके जैसा दूसरा पदार्थ नहीं है, यह पदार्थ सुलभ है, अनंत गुण युक्त है, अप्रीति कारक है। इस प्रकार साधु न बोले ऐसे वक्तव्य से अधिकरण, अंतराय आदि दोषों की उत्पत्ति होती हैं । ४३ ।
सव्वमेअं वइस्सामि, सव्वमेअं ति नो वए । अणुवीई सव्वं सव्वत्थ, एवं भासिज्ज पन्नवं ॥ ४४॥
संदेशों के आप ले के समय में मैं सर्व कहूंगा या ऐसा ही उन्होंने कहा था ऐसा न कहें। सभी स्थानों पर मृषा वाद का दोष न लगे इसका पूर्ण विचार कर बुद्धिमान् साधु भाषा का प्रयोग करें।
'क्रय-विक्रय के विषय में"
सुक्कीअं वा सुविक्कीअं, इयं गिण्हं इयं मुंच, पणीयं नो
वियागरे ॥ ४५ ॥
क्रय-1
-विक्रय के विषय में अच्छा खरीदा / अच्छा बेचा/ यह खरीदने योग्य नहीं है। यह खरीदने योग्य है। यह ले लो। यह बेच दो। इस प्रकार साधु न बोलें क्योंकि ऐसे वक्तव्य से अप्रीति अधिकरणादि दोष लगते हैं । ४५ ।
अकिज्जं किज्जमेव वा ।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ८८