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अप्पग्धे वा महग्घे वा, कए वा विक्कए वि वा।
पणिअढे समुप्पन्ने, अणवज्ज विआगरे॥४६॥ अल्प मूल्य वाले, बहुमूल्य वाले पदार्थ के क्रय-विक्रय के विषय में गृहस्थ के प्रश्न में साधु निष्पाप, निर्दोष उत्तर दे कि “इस क्रय-विक्रय के विषय में साधुओं का संबंध न होने से हमें बोलने का अधिकार नहीं है। ४६।" "असंयत को क्या न कहें"?
तहेवासंजयं धीरो, आस एहिं करेहि वा।
सयं चिट्ट वयाहि त्ति, नेवं भासिज्ज पन्नवं॥४७॥ धीर एवं बुद्धिमान् साधुओं को गृहस्थ से बैठो, आओ, यह कार्य करो, सो जाओ, खड़े रहो, जाओ इत्यादि नहीं कहना। ये सभी जीवोपघात के कारण हैं। ४७। “साधु किसे न कहें? किसे कहें"?
बहवे इमे असाहू लोए बुच्चंति साहुणो। . न लवे असाहुं साहत्ति, साहुं साहु ति आलवे॥४८॥ नाण-दसण-संपन्नं, संजमे अ तवे रयं।
एवं गुण-समाउत्तं, संजय साहुमालवे॥४९॥ जन समुदाय रुप लोक में बहुत सारे असाधु साधु के नाम से बुलाये जाते हैं (जो मोक्षमार्ग की साधना न करने से असाधु हैं) ऐसे असाधु को मुनि, साधु न कहें। पर जो मोक्ष मार्ग का साधक साधु है उसे ही साधु कहें। - ज्ञान-दर्शन सहित संयम एवं तप में रक्त हो ऐसे गुण समायुक्त संयमी साधु को साधु कहें। पर मात्र द्रव्य लिंगधारी को साधु न कहें। ४८ , ४९. "युद्ध के समय भाषा का उपयोग"
देवाणं मणुआणं च तिरिआणं च बुग्गहे।
अमुगाणं जओ होउ, मा वा होउ ति नो वए॥५०॥ देव, मनुष्य या तिर्यंचों को आपस में युद्ध के समय में किसी का जय एवं किसी का पराजय हो ऐसा साधु न बोले। ५०। "ऋतु काल में भाषा का प्रयोग"
वाओ वुटुं च सीउण्हं, खेमं धायं, सिवंति वा।
क्या ण हज्ज एआणि? मा वा होउ ति नो वए॥५१॥ गर्मी की मौसम में पवन, वर्षा की ऋतु में वर्षा एवं शीत ऋतु में सर्दी, ताप, क्षेम(रक्षण) सुकाल, उपद्रव रहितता आदि कब होंगे या ये कब बंद होंगे इत्यादि न कहें। ऐसा कहने से अधिकरणादि दोष, प्राणी पीड़न एवं आर्त ध्यानादि दोष लगते हैं। ५१।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / ८९