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पिंडेसणा नामक पंचम अध्ययन प्रथम उद्देश्य
संबंध
चतुर्थ अध्ययन में षट्टजीवनिकाय का स्वरुप बताया है। षट्जीवनिकाय की रक्षा करने का उपदेश दिया है। षट्जीवनिकाय की रक्षा में मुख्य साधन देह है। देह की सुरक्षा का मुख्य साधन निर्दोष गोचरी है। सदोष गोचरी से देह की सुरक्षा होगी तो षड्जीवनिकाय की विराधना होगी। अत: निर्दोष गोचरी हेतु पिण्डैषणा अध्ययन तीर्थंकर आदि भगवंतो ने प्ररुपित किया है। जिस में मुनि भगवंतों के एषणा समिति के पालन का विधान दर्शाया है। "मुनि कैसे चलें?"
संपत्ते भिक्खकालंमि. असंभतो अमुच्छिओ।
इमेण कम्मजोगेण, भत्तपाणं-गवेसओ॥१॥ मुनि भिक्षा का समय हो जाने पर असंभ्रात (अनाकुल) अमूर्च्छित अनासक्त रहते हुए आगे के श्लोकों में कहे जाने वाले क्रम योग से (विधि से) आहार पानी की गवेषणा करे॥१॥
से गामे वा नगरे वा गोअरग्ग-गओ मुणी।
चरे मंदमणुन्विग्गो, अविख्खित्तेण चे असा॥२॥ ग्राम या नगर में भिक्षाचर्या हेतु मुनि को धीरे-धीरे अव्यग्रतापूर्वक एवं अव्याक्षिप्त चित्त पूर्वक चलना चाहिये॥२॥
परओ जगमायाओ पेहमाणो महि चरे।
वजंतो बीअहरिआई पाणे अ दगमट्टि॥३॥
बीज, हरित्काय, जल, एवं सचित मिट्टी आदि जीवों को बचाते हुए साढ़े तीन हाथ प्रमाण आगे की भूमि को देखते हुए मुनि उपयोग पूर्वक चले॥३॥
ओवायं विसमं खाण,विजलं परिवज्जओ।
संकमेण न गच्छेज्जा, विज्जमाणे परकमे॥४॥ चलते हुए मार्ग में खड़े, स्तंभ, बिना पानी का किच्चड़ हो नदी आदि को पार करने के लिए पत्थर काष्ठ आदि रक्खा हो ऐसे प्रसंग पर दूसरा योग्य मार्ग मिल जाय तो उस मार्ग से साधु न जाय।४। कारण दर्शाते हुए आगे कहा है:
पवडते व से तत्थ, पक्खलंते व संजओ।
हिंसेज पाणभूआई तसे अदुव थावरे॥५॥
ऐसे मार्ग पर चलते हुए साधु गिर जाय या स्खलित हो जाय तो त्रस स्थावर जीवों की विराधना हो जाती है, और स्वयं के अंगोपांगों को चोट पहुंचने की संभावना है। इस प्रकार उभय विराधना है॥५॥
तम्हा तेण न गच्छिज्जा, संजओ सुसमाहिओ। सइ अन्नेण मग्गेण, जयमेव परक्कमे॥६॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् /४६