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उप्पन्नं प्राप्त नाइ अधिक नहीं हीलिज्जा निंदा मुहालद्धं मुधाग्राही मुहाजीवी मुधाजीवी॥९९॥ मुहादाई मुधादाता प्रत्युपकार की इच्छा बिना॥१०॥ उद्देश्य दूसरा पडिग्गहं पात्र को संलिहिताणं अच्छी प्रकार साफ कर॥१॥ समावन्नो रहा हुआ अयावयट्ठा संयम के निवीहार्थ भूच्चाणं आहार करके संथरे निर्वाह होता हो॥२॥ पुव्वउत्तेणं पूर्वोक्त उत्तरेण आगे कहे अनुसार॥३॥ सनिवेसं ग्रामादि गरिहसि निंदा करता है॥५॥ सइकाले समय होने पर कुज्जा करे सोइज्जा शोक करे अहिआसओ तप हुआ ऐसा चिंतन करे॥६॥ पाणा प्राणि उज्जुअं सन्मुख॥७॥ कत्थई कहीं भी पबंधिज्जा करे कहं कथा चिट्ठित्ताण बैठकर॥८॥ फलिह फलक अवलंबिआ अवलंबन लेकर॥९॥ किविणं कृपण वणीमगं दरिद्र उवसंकमंतं जाते हुए॥१०-१३॥ उप्पलं नीलकमल पउमं रक्तकमल कुमुअं कुमुद मगदंतिअं मोगरा संलुंचिया छेदकर संमद्दिआ मर्दन कर॥१४-१७॥ सालुअं कमलकंद विरालि पलाशकंद नालिअं नाल मुणालिअं कमल के तंतु सासव सरसव तरूणगं तरूण, नये अनिव्वुडं अपरिणत पवालं प्रवाल रूक्खस्स वृक्ष का॥१९॥तरूणिअं बिना दाने का छिवाडि मुंग की फली भज्जिअं पकाई हुई मिश्र॥ २०॥ कोलं बोर अणुसिन्नं न पकाया हो वेलुअं वंसकारेला कासवनालिअं सीवणवृक्ष का फल पप्पडगं पापड़ी॥ २१॥ विअडं कच्चा जल तत्तनिव्वुडं तीन उकाले बिना का जल पूडू पिन्नागं सरसव का खोल॥२२॥ कविढे कोठफल, माउलिंगं बीजोरा फल, मूलगं मूला के अंग मूलगत्तिअंमूला का कंद न पत्थो न मांगे फलमंथूणि बोर चूर्ण बिअ मंथूणि जवादि का आटा बिहेलगं बहेड़ा का फल पियालं चारोली के फल। २४। समुआणं शुध्दभिक्षा हेतु उसढं धनाढ्य नाभिधारओ जावे नहीं॥२५॥ असिजा गवेषणा करे विसीइज खेद करना मायण्णे मात्रज्ञ ॥२६॥ पच्चक्खे प्रत्यक्ष ॥२८॥ डहरं युवान महल्लगं बड़े वंदमाणं वंदनकर्ता को जाइजा याचना अणं उसको फरूसं कठोर ॥२९॥ समुक्कसे गर्व न करे अन्नेसमाणस्स जिनाज्ञा पालक अणुचिट्ठइ पाला जाना॥३०॥ विणिगुहइ छुपाना मामेयं मेरा यह दाइअं बताया आयो ग्रहण करेगा अत्तट्ठा स्वयं का स्वार्थ गुरूओ बड़ा दुत्तोसओ जैसे-तैसे आहार से संतोषित न होने वाला॥३२॥ भद्दगं अच्छा विवन्नं वर्णरहित आहरे लावे॥३३॥ जाणंतुं जाने ता प्रथम इमे यह आययट्ठी आत्मार्थी अयं यह लहुवित्ती-रूक्ष वृत्ति युक्त सुतोसओ अति संतोषी॥३४॥ पसवई उत्पन्न करे॥३५॥ सुरं मदिरा मेरगं महुए का दारू मजगं मादक ससक्खं साक्षी सहित सारक्खं संरक्षण॥३६॥ पीय पीता है तेणो चोर पस्सह देखो निअडिं माया को॥३७॥ सुंडिआ आसक्ति अनिव्वाणं अशांति असाहुआ असाधुता ॥३८॥ निविग्गो नित्य उब्दिग्न अत्तकम्मेहिं स्वकर्म से॥३९॥ आवि भी ण इसकी॥४०॥ अगुणप्पे ही अवगुण के स्थान को देखनेवाला॥४१॥ अत्थ संजुत्तं मोक्षार्थ युक्त॥४३॥ वयतेणे वचन चोर॥४४॥ अल बकरा मूअगं मूकपना॥४८॥ अणुमायं अणुमात्र॥४९॥ भिक्खेसण सोहिं आहार गवेषणा की शुद्धि सुप्पणिहिइंदिओ समता भाव से पांच इन्द्रियों को विषय विकार से रोक दी है तिव्व लज अनाचार करने में तीव्र लज्जायुक्त गुणवं गुणवान् विहरिजासि तुम विचरना॥५०॥
श्री दशवैकालिक सूत्रम् /४५