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इस कारण से समाधियुक्त जिनाज्ञा पालक साधु को जब तक शास्त्रोक्त मार्ग मिल रहा हो तब तक ऐसे मार्ग पर न चले, जो दूसरा मार्ग न मिले तो जयणा पूर्वक चले॥६॥
इंगालं 'छारिअं रासिं तुसरासिं च गोमयं,।
ससरक्खहिं पाओहिं, संजओ तं नइक्कमे॥७॥ सुसाधु मार्ग में चलते हुए अंगारों के, राख के, छिलकों के, गोबर के समूह पर सचित रज युक्त पैर से न चले॥७॥ ..
न चरेज वासे वासंते, महिला व पडंतिओ।
महावाओ व वायंते तिरिच्छ-संपाइमे सु वा॥८॥ वर्षा हो रही हो, धुम्मस हो, वेगयुक्त वायु हो, रज उड़ रही हो, एवं संपातिम त्रसजीव उड़ रहे हो तो साधु गोचरी न जाए, जाने के बाद ऐसा हुआ हो तो योग्य स्थल पर रुक जाए॥८॥ किस मार्ग से न जाए?
न चरेज वेस-सामंते . बंभचेर -वसाण (ण) ओ बंभयारिस्स दंतस्स, हुजा तत्थ विसुत्तिआ॥९॥ अणायाणे चरंतस्स, संसग्गी अभिक्खणं।। हुज वयाणं पीला, सामन्त्रंमि अ संसओ॥१०॥ तम्हा ओ अं विआणित्ता, दोसं दुग्गइ-वढणं।
वजओ वेस- सामंतं, मुणी अगंत-मस्सिओ॥११॥ सर्वोत्तम व्रत की रक्षा के लिए सूचना करते हुए सूत्रकार श्री कह रहे हैं कि- जहां ब्रह्मचर्य के नाश का संभव है, ऐसे वेश्यादि के गृह की ओर साधु को गोचरी के लिए नहीं जाना चाहिए वहां जाने से उनके रुप-दर्शन के साथ उनकी कामोत्तेजक वेश भूषादि के कारण इंद्रियों का दमन करनेवाले ब्रह्मचारी के मन में विकार उत्पन्न हो सकता है॥९॥ बार-बार वेश्यादि के रहने के स्थानों की ओर गोचरी जाने से उनकी ओर बार-बार नजर जायगी, कभी उनसे वार्तालाप रुप संसर्ग होगा, उससे महाव्रत में अतिचार लगेगा (कभी महाव्रत का भंग भी हो जाता है), लोगों में उसके चारित्र के विषय में शंकाएं उत्पन्न होंगी॥१०॥ इस कारण मोक्ष की एकमेव आराधना करनेवाले मुनि भगवंत दुर्गति वर्धक इस दोष को समझकर वेश्यादि ऐसी स्त्रियाँ जहाँ रहती हो उस ओर गोचरी हेतु न जाए उन स्थानों का त्याग कर दे॥११॥ ___टी.वी. वीडियों, अंग प्रदर्शन एवं अर्द्धनग्नावस्था जैसे वस्त्र परिधान के युग में मुनि भगवंतों को गोचरी के लिए जाते समय अत्यंत अप्रमत्तावस्था की आवश्यकता का दिग्दर्शन ऊपर के तीन श्लोकों से हो रहा है ज्ञान-वयं-एवं व्रत पर्याय से अपरिपक्व मुनियों को गोचरी जाते समय, गोचरी भेजते समय ऊपर के तीन श्लोकों के रहस्य को विचाराधीन रखना आवश्यक है।
इन तीन श्लोकों के शब्दार्थ को न देखकर उसके अंदर रहे हुए रहस्य को समझना आवश्यक
____आज कितने ही मुनियों के भाव प्राणों का विनाश हो रहा है, अध:पतन हो रहा है एवं महाव्रतों
श्री दशवैकालिक सूत्रम् /४७