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-जीव हिंसा, झूठ बोलना,चोरी करना, मैथुन सेवना, परिग्रह रखना इन पांचों आश्रवों से उत्पन्न दोषों के जाननेवाले, मनोगुप्ति' वचनगुप्ति कायगुप्ति इन तीनों गुप्तियों को पालनेवाले, स्पर्शन, रसन,' घ्राण, चक्षु, श्रोत्र इन पांचों इन्द्रियों को दमनेवाले, सात भयों से नहीं डरनेवाले और निष्कपट भाव से सब जीवों को आत्मवत् देखनेवाले या केवल मोक्षमार्ग में ही रहने वाले जो पुरुष होते हैं, वे निर्ग्रन्थ कहे जाते हैं। "ऋतु काल का वर्तन"
आयावयंति गिम्हेसु, हेमंतेसु अवाउडा।
वासासु पडिसंलीणा, संजया सुसमाहिया॥१२॥ शब्दार्थ-गिम्हेस गर्मी में आयावयंति आतापना लेते हैं हेमंतेस सर्दी में अवाउडा उघाड़े शरीर से रहते हैं वासासु बारिश में पडिसंलीणा एक जगह रह कर संवरभाव में रहते हैं, वे साधु संजया संयम पालने वाले, और सुसमाहिया ज्ञानादि गुणों की रक्षा करने वाले
-वही साधु अपने संयमधर्म और ज्ञानादिगुणों की सुरक्षा कर सकते हैं, जो गर्मी में आतापना लेते, सर्दी में उघाड़े शरीर रहते, और बारिश में एक जगह मुकाम करके इन्द्रियों को अपने आधीन रखते हों। "महर्षियों का कर्तव्य"
परीसहरिउदंता, धूअमोहा जिइंदिया।
सव्वदुक्खपहीणट्ठा, पक्कमति महेसिणो॥१३॥ शब्दार्थ-परीसहरिउदंता परिषह रूप शत्रुओं को जीतने वाले धूअमोहा मोहकर्म को हटाने वाले जिइंदिया इन्द्रियों को जीतने वाले महेसिणो साधुलोग सव्वदुक्खपहीणट्ठा कर्मजन्य सभी दुःखों का नाश करने के लिए पक्कमति उद्यम करते हैं।
-कर्मजन्य दुःखों को निर्मूल (नाश) करने का उद्यम वे ही साधु-महर्षि कर सकते हैं, जो बाईस परिषह रुप शत्रुओं को, मोह और पांचों इन्द्रियों के तेईस' विषयों को जीतने वाले हों।
१ कषाय-विकारों में मन को न जाने देना. २ दोष रहित भाषा बोलना. ३ सपाप व्यापार शरीर से न करना. ४ शरीर. ५ जीभ. ६ नाक. ७ नेत्र. ८ कान, ९ इहलोक-मनुष्य को मनुष्य से होनेवाला i. परलोकभय-मनुष तिर्यंच से होनेवाला ii, आदानभय-राजा से होनेवाला iii, अकस्मात् भय-बिजली आदि से होनेवाला iv, आजीविकाभय-दुकाल आदि से होनेवाला V, मरणभय vi, लोकापवाद भय vii
१०-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, अचेल, दंशमशक, अरति, स्त्री, चर्या, निषद्या, शय्या, आक्रोश, वध, याचना, अलाभ,रोग तृणस्पर्श, मल, सत्कार, प्रज्ञा, अज्ञान, दर्शन; ये २२ परीषह है।
११-स्पर्शनेन्द्रिय के शीत, उष्ण, रूक्ष, चीकना, खरदरा, कोमल, हलका, भारी ये आठ; रसनेन्द्रिय के तीखा, कडुआ, कषायला, खट्टा, मीठा ये पांच; घ्राणेन्द्रिय के सुगंध, दुर्गंध ये दो, चक्षुरिन्द्रिय के श्वेत, नील, पीत, लाल, काला, ये पांच; श्रोत्रेन्द्रिय के सचितशब्द, अचितशब्द, मिश्रशब्द ये तीन; ये सब मिलकर पांचों इन्द्रियों के २३ विषय
श्री दशवैकालिक सूत्रम् /१६