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दुक्कराई करित्ताणं, दुस्सहाई सहेत्तु या
केहऽत्थ देवलोएसु, केइ सिझंति नीरया॥१४॥ शब्दार्थ-दुक्कराइं अनाचार त्याग रूप अत्यन्त कठिन साध्वाचार को करित्ताणं पालन करके य और दुस्सहाई मुश्किल से सहन होने वाली आतापना आदि को सहेत्तु सहन करके अत्थ इस संसार में केइ कितने ही साधु देवलोएसु देवलोकों में जाते हैं. केइ कितने ही साधु नीरया कर्मरज से रहित हो सिझंति सिद्ध होते हैं।
-साध्वाचार का पालन करके और आतापना को सहन करके कितने ही साधु देवलोकों में और कितने ही कर्मरज को हटा कर मोक्ष जाते हैं।
खवित्ता पुवकम्माई, संजमेण तवेण य।
सिद्धिमग्गमणुप्पत्ता, ताइणो परिनिव्वुडे ॥ १५॥ 'त्ति बेमि'।
शब्दार्थ-संजमेण सतरह प्रकार के संयम से य और तवेण य बारह प्रकार के तप से पुव्वकम्माई बाकी रहे पूर्व-कर्मों को खवित्ता क्षय करके सिद्धिमग्गं मोक्षमार्ग को अणुप्पत्ता प्राप्त होने वाले ताइणो स्व-पर को तारनेवाले साधु परिनिव्वुडे सिद्धिपद को प्राप्त होते हैं त्ति ऐसा बेमि मैं अपनी बुद्धि से नहीं, किंतु तीर्थंकर आदि के उपदेश से कहता हूं।
-जो साधु देवताओं के लोकों में पैदा हुए हैं, वे वहाँ से देवसंबन्धी भवस्थिति और देवभोगों का क्षय होने के बाद चव करके आर्य-कुलों में उत्पन्न होते हैं। फिर वे दीक्षा लेकर संयम पालन और विविध तपस्याओं से अवशिष्ट कर्मों को खपा करके मोक्ष चले जाते हैं।
आचार्य श्रीशय्यंभवस्वामी फरमाते हैं कि हे मनक! ऐसा मैं अपनी बुद्धि से नहीं, किन्तु तीर्थंकर गणधर आदि महर्षियों के उपदेश से कहता हूं।
इति क्षुल्लकाचार कथा नामकमध्ययनं तृतीयं समाप्तम्।
१-सुधर्म, ईशान, आदि बारह स्वर्ग, सुदर्शन, सुप्रतिबद्ध आदि नव ग्रैवेयक और विजयादि पांच अनुत्तर, २-उत्तम, ३-बाकी रहे हुए, ४ भवोपग्राही।
श्री दशवैकालिक सूत्रम् / १७