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सोवच्चले सिंघवे लोणे, रोमालोणे य आमए।
सामुद्दे पंसुखारे य, कालालोणे य आमए॥८॥ शब्दार्थ-आमए सचित्त सोवच्चले संचल नमक लेना ३९, सिंधवे सचित्त सेंधा नमक लेना ४०, लोणे सचित्त साँभर नमक लेना ४१, रोमालोणे य सचित्त रोमक नमक लेना ४२, सामुद्दे सचित्त समुद्रीनमक लेना ४३, पंसुखारे य सचित्त पांशुक्षार लेना ४४, आमए सचित्त कालालोणे य कालानमक लेना ४५.
धुवणेत्ति वमणे य, वत्थीकम्म विरेयणे।
अंजणे दंतवणे य, 'गाया भंगविभूसणे॥९॥ शब्दार्थ धुवणेत्ति वस्त्रों को धूप से तपाना या रोग शान्ति के वास्ते धूम्रपान करना ४६, वमणे य मदनफल आदि औषधी से वमन करना ४७, वत्थीकम्म स्नेहगुटिका वगैरह की अधोद्वार में पिचकारी लगवाना ४८, विरेयणे बारंबार जुलाब लेना ४९, अंजणे बिना कारण नेत्रों में काजल, सुरमा आदि लगाना ५०, दंतवणे य बिना कारण दन्तमंजन, दाँतन वगैरह करना ५१, गाया भंगविभूसणे बिना कारण तैल आदि लगाना या शोभा के निमित्त शरीर पर अलंकार पहनना ५२.
सव्वमेयमणाइणं निग्गंथाण महेसिणं।
संजमम्मि य जुत्ताणं, लहुभूयविहारिणं ॥१०॥ शब्दार्थ-निग्गंथाण द्रव्य-भाव रूप गांठ से रहित, संजमम्मि संयम-धर्म में जुत्ताणं उद्यमवान् य और लहुभूयविहारिणं वायु के समान अप्रतिबद्ध विहार करनेवाले महेसिणं साधुओं को एयं ऊपर कहे हुए सव्वं सभी अनाचार अणाइणं आचरण करने योग्य नहीं हैं। - -संयम को पालन करनेवाले अप्रतिबद्ध विहारी निर्ग्रन्थ महर्षियों को ऊपर बतलाये हुए बावन अनाचार त्याग करने योग्य हैं। निग्रंथ कौन?
पंचासवपरिणाया, तिगुत्ता छसु संजया।
पंचनिग्गहणा धीरा, निग्गंथा उज्जुदसिणो॥११॥ .शब्दार्थ-पंचासवपरिणाया पांच आश्रवजन्य दोषों को जाननेवाले तिगुत्ता तीन गुप्तियों के पालनेवाले छसु षड्जीवनिकाय की संजया रक्षा करनेवाले पंचनिग्गहणा पांचों इन्द्रियों को जीतनेवाले धीरा भयों से नहीं डरनेवाले उज्जुदंसिणो निष्कपट भाव से सब को समान देखनेवाले निगंथा निर्ग्रन्थ साधु होते हैं। .
श्री दशवकालिक सूत्रम् /१५